Shrimad Rajchandra

शिक्षापाठ 21: बारह भावना (Mokshmala)

शिक्षपाठ 21

वैराग्य की, और ऐसे आत्महितैषी, विषयों की सुदृढ़ता के लिए तत्त्वज्ञानी बारह भावनाओं का चिंतन करने को कहते हैं-

  1. शरीर, वैभव, लक्ष्मी, कुटुंब, परिवार आदि सर्व विनाशी हैं। जीव का मूल धर्म अविनाशी है, ऐसा चिंतन करना, यह पहली ‘अनित्यभावना’
  2. संसार में मरण के समय जीव को शरण देने वाला कोई नहीं है; मात्र एक शुभ धर्म की ही शरण सत्य है, ऐसा चिंतन करना, यह दूसरी ‘अशरणभावना’
  3. इस आत्मा ने संसारसमुद्र में पर्यटन करते-करते सर्व भव किये हैं। इस संसार की बेड़ी से मैं कब छूटूँगा? यह संसार मेरा नहीं है, मैं मोक्षमयी हूँ, ऐसा चिंतन करना, यह तीसरी ‘संसारभावना’
  4. यह मेरा आत्मा अकेला है, यह अकेला आया है, अकेला जायेगा; अपने किये हुए कर्मों को अकेला भोगेगा, ऐसा चिंतन करना, यह चौथी ‘एकत्वभावना’
  5. इस संसार में कोई किसी का नहीं है, ऐसा चिंतन करना, यह पाँचवी ‘अन्यत्वभावना’
  6. यह शरीर अपवित्र है, मलमूत्र की खान है, रोग-जरा के रहने का धाम है, इस शरीर से मैं भिन्न हूँ, ऐसा चिंतन करना, यह छठी ‘अशुचिभावना’
  7. राग, द्वेष, अज्ञान, मिथ्यात्व इत्यादि सर्व आश्रव हैं, ऐसा चिंतन करना, यह सातवीं ‘आश्रवभावना’
  8. ज्ञान, ध्यान में प्रवर्तमान होकर जीव नये कर्म नहीं बाँधता, ऐसा चिंतन करना, यह आठवीं ‘संवरभावना’
  9. ज्ञानसहित क्रिया करना यह निर्जरा का कारण है, ऐसा चिंतन करना, यह नौवीं ‘निर्जराभावना’
  10. लोकस्वरूप की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के स्वरूप का विचार करना, यह दसवीं ‘लोकस्वरूपभावना’
  11. संसार में परिभ्रमण करते हुए आत्मा को सम्यग्ज्ञान की प्रसादी प्राप्त होना दुर्लभ है, अथवा सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ तो चारित्र-सर्वविरति परिणामरूप धर्म प्राप्त होना दुर्लभ है, ऐसा चिंतन करना, यह ग्यारहवीं ‘बोधिदुर्लभभावना’
  12. धर्म के उपदेशक तथा शुद्ध शास्त्र के बोधक गुरु तथा उनके उपदेश का श्रवण मिलना दुर्लभ है, ऐसा चिंतन करना, यह बारहवीं ‘धर्मदुर्लभभावना’

इन बारह भावनाओं का मननपूर्वक निरंतर विचार करने से सत्पुरुष उत्तम पद को प्राप्त हुए हैं, प्राप्त होते हैं और प्राप्त होंगे।


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