Shrimad Rajchandra

शिक्षापाठ 73: मोक्षसुख (Mokshmala)

Mokshmala 73

श्रीमद् जी लिखते है…

इस सृष्टि मण्डल में भी कितनी ही ऐसी वस्तुएँ और मन की इच्छाएँ रही हैं, कि जिन्हें कुछ अंश में जानते हुए भी कहा नहीं जा सकता। फिर भी ये वस्तुएँ कुछ सम्पूर्ण शाश्वत या अनंत भेदवाली नहीं है। ऐसी वस्तु का जब वर्णन नहीं हो सकता, तब अनंत सुखमय मोक्ष-संबंधी उपमा तो कहाँ से मिलेगी? गौतम स्वामी ने भगवान से मोक्ष के अनंत सुख के विषय में प्रश्न किया; तब भगवान ने उत्तर में कहा-“गौतम! यह अनंत सुख! मैं जानता हूँ, परंतु उसे कहा जा सके ऐसी यहाँ पर कोई उपमा नहीं है। जगत में इस सुख के तुल्य कोई भी वस्तु या सुख नहीं है।” ऐसा कह कर उन्होंने निम्न आशय का एक भील का दृष्टांत दिया था।

एक जंगल में, एक भद्रिक भील अपने बाल-बच्चों सहित रहता था। शहर आदि की समृद्धि की उपाधि का उसे लेश भान भी न था। एक दिन कोई राजा अश्व क्रीड़ा के लिये घूमता-घूमता वहाँ आ निकला। उसे बहुत प्यास लगी थी; उसने इशारे से भील से पानी मांगा। भील ने पानी दिया। शीतल जल से राजा संतुष्ट हुआ। अपने को भील की तरफ से मिले हुए अमूल्य जल दान का बदला चुकाने के लिये, राजा ने भील को समझा-कर अपने साथ लिया। नगर में आने के बाद राजा ने भील को जो उसने जिंदगी में नहीं देखी, ऐसी वस्तुओं में रखा। सुंदर महल, पास में अनेक अनुचर, मनोहर छत्रपलंग, स्वादिष्ट भोजन, मंद-मंद पवन और सुगंधी विलेपन से उसे आनंदमय कर दिया। विविध प्रकार के हीरा, माणिक, मौक्तिक, मनिरत्न और रंग-बिरंगी अमूल्य वस्तुएँ निरंतर उस भील को देखने के लिये भेजा करता था, और उसे बाग-बगीचों में घूमने-फिरने के लिये भेजा करता था। इस प्रकार राजा उसे सुख दिया करता था। एक रात जब सब सो रहे थे, तब उस भील को बाल-बच्चे याद आये, इसलिये वह वहाँ से कुछ लिये-किये बिना एकाएक निकल पड़ा। जाकर अपने कुटुंबियों से मिला। उन सबने मिलकर पूछा, “तू कहाँ था?” भील ने कहा, “बहुत सुख में। वहाँ मैंने बहुत प्रशंसा करने योग्य वस्तुएँ देखीं।”

कुटुंबी- परंतु वे कैसी थी? यह तो हमें बता।

भील- क्या कहूँ? यहाँ वैसी एक भी वस्तु नहीं है।

कुटुंबी- भला ऐसा है क्या? ये शंख, सीप, कौड़ा कैसे मनोहर पड़े हैं! वहाँ ऐसी कोई देखने लायक वस्तु थी?

भील- नहीं, नहीं भाई, ऐसी वस्तु तो यहाँ एक भी नहीं है। उनके सौवें या हज़ारवें भाग जितनी भी मनोहर वस्तु यहाँ नहीं है।

कुटुंबी- तब तो तू चुपचाप बैठा रह, तुझे भ्रम हुआ है, भला इससे अच्छा और क्या होगा?

हे गौतम! जैसे यह भील राज वैभव सुख भोग कर आया था, और जानता भी था, फिर भी उपमा योग्य वस्तु न मिलने से वह कुछ कह नहीं सकता था; वैसे ही अनुपमेय मोक्ष को, सच्चिदानंद स्वरूपमय निर्विकारी मोक्ष के सुख के असंख्यातवें भाग के भी योग्य उपमेय न मिलने से मैं तुझे नहीं कह सकता।

मोक्ष के स्वरूप के विषय में शंका करने वाले तो कुतर्कवादी हैं, उन्हें क्षणिक सुख संबंधी विचार के कारण सत् सुख का विचार नहीं आता। कोई आत्मिक ज्ञानहीन यों भी कहता है कि इससे कोई विशेष सुख का साधन वहाँ है नहीं, इसलिए अनंत अव्याबाध सुख कह देते हैं। उसका यह कथन विवेकपूर्ण नहीं है। निद्रा प्रत्येक मानव को प्रिय है; परंतु उसमें वह कुछ जान या देख नहीं सकता; और यदि कुछ जानने में आये तो मात्र स्वप्न-उपाधि का मिथ्यापना  आता है। वह स्वप्न रहित निद्रा, जिसमें सूक्ष्म एवं स्थूल सब जाना और देखा जा सके और निरुपाधि से शांत ऊंघ ली जा सके, तो उसका वह वर्णन क्या कर सकता है? उसे उपमा भी क्या दे सकता है? यह तो स्थूल दृष्टांत है; परंतु बाल, अविवेकी इसके माध्यम से कुछ विचार कर सकें, इसलिए कहा है।

भील का दृष्टांत समझाने के लिये भाषा-भेद के फेरफार से तुम्हें कह बताया।


श्रीमद राजचन्द्र के मोक्षमाला हर रविवार

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