Shrimad Rajchandra

शिक्षापाठ 43: अनुपम क्षमा (Mokshmala)

Mokshamala

श्रीमद् जी लिखते है…

क्षमा अंतर्शत्रु को जीतने का खड्ग है। पवित्र आचार की रक्षा करने का बख्तर(कवच) है। शुद्ध भाव से असह्य दुःख में, समपरिणाम से, क्षमा रखने वाला मनुष्य भवसागर को तर जाता है।

कृष्ण वासुदेव के गजसुकुमार नामक छोटे भाई, महा सुरूपवान एवं सुकुमार मात्र बारह वर्ष की आयु में, भगवान नेमिनाथ के पास संसार त्यागी होकर श्मशान में, उग्र ध्यान में स्थित थे; तब वे एक अद्भुत क्षमामय चरित्र से महा सिद्धि को पा गये, उसे मैं यहाँ कहता हूँ।

सोमल नाम के ब्राह्मण की सुरूप वर्ण संपन्न पुत्री के साथ गजसुकुमार की सगाई हुई थी। परंतु विवाह होने से पहले गजसुकुमार तो संसार त्याग  कर चले गये। इसलिये अपनी पुत्री के सुख नाश के द्वेष से उस सोमल ब्राह्मण को भयंकर क्रोध व्याप्त हो गया। गजसुकुमार की खोज करता-करता वह उस श्मशान में आ पहुँचा, जहाँ महामुनि गजसुकुमार एकाग्र विशुद्ध भाव से कायोत्सर्ग में थे। उसने कोमल गजसुकुमार के माथे पर चिकनी मिट्टी की बाड़ बनाई और उसके अंदर धधकते हुए अंगारे भरे और ईंधन भरा, जिससे महाताप उत्पन्न हुआ। इससे गजसुकुमार की कोमल देह जलने लगी, तब सोमल वहाँ से जाता रहा। उस समय गजसुकुमार के असह्य दु:ख के बारे में भला क्या कहा जाये?  परंतु तब वे समभाव परिणाम में रहे। किंचित् क्रोध या द्वेष उनके हृदय में उत्पन्न नहीं हुआ। अपने आत्मा को स्वरूप स्थित करके बोध दिया, “देख! यदि तूने इसकी पुत्री के साथ विवाह किया होता तो वह कन्यादान में तुझे पगड़ी देता। वह पगड़ी थोड़े समय में फट जाने वाली तथा परिणाम में दु:खदायक होती। यह इसका बड़ा उपकार हुआ कि उस पगड़ी के बदले इसने मोक्ष की पगड़ी बँधवायी।” ऐसे विशुद्ध परिणामों से अडिग रहकर समभाव से उस असह्य वेदना को सहकर, सर्वज्ञ सर्वदर्शी होकर वे अनंत जीवनसुख को प्राप्त हुए। कैसी अनुपम क्षमा और कैसा उसका सुन्दर परिणाम! तत्त्वज्ञानियों के वचन हैं कि आत्मा मात्र स्व-सद्भाव में आना चाहिये, और वह उसमें आया तो मोक्ष हथेली में ही है। गजसुकुमार की प्रसिद्ध क्षमा कैसा विशुद्ध बोध देती है!


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