श्रीमद् जी लिखते है…
धर्म का अनादर, उन्माद, आलस्य और कषाय ये सब प्रमाद के लक्षण हैं।
भगवान ने उत्तराध्ययन सूत्र में गौतम से कहा- “हे गौतम! मनुष्य की आयु कुश की अनी पर पड़े हुए जल के बिन्दु जैसी है। जैसे उस बिन्दु के गिरने में देर नहीं लगती, वैसे इस मनुष्य की आयु के बीत जाने में देर नहीं लगती।” इस बोध के काव्य में चौथी पंक्ति स्मरण में अवश्य रखने योग्य है, ‘समयं गोयम मा पमायए’। इस पवित्र वाक्य के दो अर्थ होते हैं। एक तो यह कि हे गौतम! समय अर्थात् अवसर पाकर प्रमाद नहीं करना, और दूसरा यह कि निमेषोन्मेष (पलक झपकने) में बीतते हुए काल का असंख्यातवाँ भाग जो समय कहलाता है, उतने वक्त का भी प्रमाद नहीं करना। क्योंकि देह क्षणभंगुर है। काल शिकारी सिर पर धनुषबाण चढ़ा कर खड़ा है। उसने शिकार को लिया अथवा लेगा, यह दुविधा हो रही है; वहाँ प्रमाद से धर्म कर्तव्य का करना रह जायेगा।
अति विचक्षण पुरुष संसार की सर्वोपाधि का त्याग करके, अहोरात्र (दिन और रात) धर्म में सावधान होते हैं; पल का भी प्रमाद नहीं करते। विचक्षण पुरुष अहोरात्र के थोड़े भाग को भी निरंतर धर्म कर्तव्य में बिताते हैं और अवसर-अवसर पर धर्म कर्तव्य करते रहते हैं। परंतु मूढ़ पुरुष निद्रा, आहार, मौज-शौक और विकथा एवं राग-रंग में आयु व्यतीत कर डालते हैं। इसके परिणाम में वे अधोगति को प्राप्त करते हैं।
यथासंभव यत्ना और उपयोग से धर्म को सिद्ध करना योग्य है। साठ घड़ी के अहोरात्र में बीस घड़ी तो हम निद्रा में बीता देते हैं। बाकी की चालीस घड़ी उपाधि, गपशप और बेकार घूमने-फिरने में गुजार देते हैं। इसकी अपेक्षा साठ घड़ी के समय में से दो चार घड़ी विशुद्ध धर्म कर्तव्य के लिये उपयोग में लें तो यह आसानी से हो सकता है। इसका परिणाम भी कैसा सुंदर हो?
पल एक अमूल्य वस्तु है। चक्रवर्ती भी यदि एक पल पाने के लिये अपनी सारी ऋद्धि दे दे, तो भी वह उसे पा नहीं सकता। एक पल व्यर्थ खोने से एक भव हार जाने जैसा है, यह तात्त्विक दृष्टि से सिद्ध है!