Shrimad Rajchandra

शिक्षापाठ 57: वैराग्य धर्म का स्वरूप है (Mokshmala)

शिक्षापाठ - 57 Mokshmala

श्रीमद् जी लिखते है…

एक वस्त्र खून से रंग गया। उसे यदि खून से धोयें तो वह धोया नहीं जा सकता, परंतु अधिक रंग जाता है। यदि पानी से उस वस्त्र को धोयें, तो वह मलिनता दूर होना संभव है। इस दृष्टांत से आत्मा का विचार करें। आत्मा अनादिकाल से संसार रूप खून से मलिन हुआ है। यह मलिनता रोम-रोम में व्याप्त हो गई है! इस मलिनता को हम विषय शृंगार से दूर करना चाहें तो यह दूर नहीं हो सकती। खून से जैसे खून नहीं धोया जाता वैसे शृंगार से विषयजन्य आत्म मलिनता दूर होने वाली नहीं है; यह मानो निश्चित ही है। अनेक धर्म इस जगत में प्रचलित हैं, उनके संबंध में अपक्षपात से विचार करते हुए पहले इतना विचार करना आवश्यक है, कि जहाँ स्त्रियाँ भोगने का उपदेश किया हो, लक्ष्मी-लीला की शिक्षा दी हो, राग-रंग, मौज-शौक और एशो-आराम करने का तत्त्व बताया हो, वहाँ से अपने आत्मा को सत्-शान्ति नहीं है। कारण कि इसे धर्ममत माना जाये, तो सारा संसार धर्ममत युक्त ही है। प्रत्येक गृहस्थ का घर इसी योजना से भरपूर होता है। बाल-बच्चे, स्त्री, राग-रंग, गान-तान वहाँ जमा रहता है; और उस घर को धर्म-मंदिर कहें तो फिर अधर्म-स्थान कौन सा? और फिर जैसे हम बर्ताव करते हैं, वैसे बर्ताव करने से बुरा भी क्या? यदि कोई यों कहे कि उस धर्म-मंदिर में तो प्रभु की भक्ति हो सकती है, तो उनके लिए खेदपूर्वक इतना ही उत्तर देना है, कि वे परमात्म तत्त्व और उसकी वैराग्यमय भक्ति को जानते नहीं हैं। चाहे जो हो, परंतु हमें अपने मूल विचार पर आना चाहिए। तत्त्वज्ञान की दृष्टि से, आत्मा संसार में विषयादिक मलिनता से पर्यटन करता है। उस मलिनता का क्षय विशुद्ध भाव जल से होना चाहिए। अर्हंत के कहे हुए तत्त्व रूपी साबुन और वैराग्य रूपी जल से, उत्तम आचार-रूप पत्थर पर रखकर, आत्म-वस्त्र को धोने वाले निर्ग्रंथ गुरु हैं। इसमें यदि वैराग्य जल न हो तो सभी साधन कुछ नहीं कर सकते; इसलिए वैराग्य को धर्म का स्वरूप कहा जा सकता है। यदि अर्हंत प्रणीत तत्त्व-वैराग्य का ही बोध देते हैं, तो वही धर्म का स्वरूप है ऐसा समझना चाहिेए।


श्रीमद राजचन्द्र के मोक्षमाला हर रविवार

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  1. Follower of Krupalu Dev Shrimad Rajchandra. Jai Prabhu

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