Shrimad Rajchandra

शिक्षापाठ 52: ज्ञानियों ने वैराग्य का बोध क्यों दिया? (Mokshmala)

Vairagya

श्रीमद् जी लिखते है…

संसार के स्वरूप के संबंध में पहले कुछ कहा गया है वह तुम्हारे ध्यान में होगा।

ज्ञानियों ने इसे अनंत खेदमय, अनंत दु:खमय, अव्यवस्थित, चलविचल और अनित्य कहा है। ये विशेषण लगाने से पहले उन्होंने संसार संबंधी सम्पूर्ण विचार किया है, ऐसा मालूम होता है। अनंत भवों का पर्यटन, अनंत काल का अज्ञान, अनंत जीवन का व्याघात, अनंत मरण और अनंत शोक से आत्मा संसार चक्र में भ्रमण किया करता है। संसार की दिखती हुई, इन्द्रवारुणी जैसी सुंदर मोहिनी ने आत्मा को सम्पूर्ण लीन कर डाला है। इस जैसा सुख आत्मा को कहीं भी भासित नहीं होता। मोहिनी से सत्य सुख और उसके स्वरूप को देखने की इसने आकांक्षा भी नहीं की है। पतंग की जैसे दीपक के प्रति मोहिनी है, वैसे आत्मा की संसार के प्रति मोहिनी है। ज्ञानी इस संसार को क्षण भर के लिये भी सुख-रूप नहीं कहते। इस संसार की तिल भर जगह भी ज़हर के बिना नहीं रही है। एक सूअर से लेकर एक चक्रवर्ती तक, भाव की अपेक्षा से समान हैं; अर्थात चक्रवर्ती की संसार में जितनी मोहिनी है, उतनी ही बल्कि उससे अधिक मोहिनी सूअर की है। चक्रवर्ती जैसे समग्र प्रजा पर अधिकार भोगता है, वैसे उसकी उपाधि भी भोगता है। अधिकार की अपेक्षा उलटे उपाधि विशेष है। सूअर को इसमें से कुछ भी भोगना नहीं पड़ता। चक्रवर्ती का, अपनी पत्नी के प्रति जितना प्रेम होता है, उतना ही बल्कि उससे विशेष सूअर का अपनी सूअरनी के प्रति प्रेम रहा है। चक्रवर्ती भोग में जितना रस लेता है उतना ही रस सूअर भी मान बैठा है। चक्रवर्ती को जितनी वैभव की बहुलता है, उतनी ही उपाधि है। सूअर को उसके वैभव के अनुसार उपाधि है। दोनों उत्पन्न हुए हैं और दोनों मरने वाले हैं। इस प्रकार अति सूक्ष्म विचार करने पर क्षणिकता, रोग और जरा से दोनों ग्रसित हैं। द्रव्य से चक्रवर्ती समर्थ है, महापुण्यशाली है, सातावेदनीय भोगता है, और सूअर बेचारा असातावेदनीय भोग रहा है। दोनों को असाता-साता भी है; परंतु चक्रवर्ती महासमर्थ है। परंतु यदि वह जीवनपर्यंत मोहांध रहा तो सारी बाजी हार जाने जैसी करता है। सूअर का भी यही हाल है। चक्रवर्ती शलाका-पुरुष होने से, सूअर से इस रूप में उसकी तुलना ही नहीं है; परंतु इस स्वरूप में है। भोग भोगने में भी दोनों तुच्छ हैं; दोनों के शरीर मांस, मज्जा आदि के हैं। संसार की यह उत्तमोत्तम पदवी ऐसी है, उसमें ऐसा दु:ख, क्षणिकता, तुच्छता और अंधता रहे हैं तो फिर, अन्यत्र सुख किसलिए मानना चाहिेए? ये सुख नहीं हैं, फिर भी सुख मानों तो जो सुख भय वाले और क्षणिक हैं वे दु:ख ही हैं। अनंत ताप, अनंत शोक, अनंत दु:ख देखकर ज्ञानियों ने इस संसार को पीठ दी है, यह सत्य है। इस ओर पीछे मुड़कर देखने जैसा नहीं है, वहाँ दु:ख, दु:ख और दु:ख ही है। दु:ख का यह समुद्र है।

वैराग्य ही अनंत सुख में ले जाने वाला उत्कृष्ट मार्गदर्शक है।


श्रीमद राजचन्द्र के मोक्षमाला हर रविवार

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