Shrimad Rajchandra

शिक्षापाठ 25: परिग्रह को मर्यादित करना (Mokshmala)

Mokshmala

जिस प्राणी को परिग्रह की मर्यादा नहीं है, वह प्राणी सुखी नहीं है। उसे जो मिला वह कम है; क्योंकि उसे जितना मिलता जाये उतने से विशेष प्राप्त करने की उसकी इच्छा होती है। परिग्रह की प्रबलता में जो कुछ मिला हो उसका सुख तो भोगा नहीं जाता, परंतु जो होता है वह भी कदाचित् चला जाता है। परिग्रह से निरंतर चलविचल परिणाम और पापभावना रहती है; अकस्मात् योग से ऐसी पापभावना में यदि आयु पूर्ण हो जाये तो बहुधा अधोगति का कारण हो जाता है। सम्पूर्ण परिग्रह तो मुनीश्वर त्याग सकते हैं; परंतु गृहस्थ उसकी अमुक मर्यादा कर सकते हैं। मर्यादा हो जाने से उससे अधिक परिग्रह की उत्पत्ति नहीं है; और इसके कारण विशेष भावना भी बहुधा नहीं होती; और फिर जो मिला है उसमें संतोष रखने की प्रथा पड़ती है, जिससे सुख में समय बीतता है। न जाने लक्ष्मी आदि में कैसी विचित्रता है कि ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है। धर्म-संबंधी कितना भी ज्ञान होने पर, धर्म की दृढ़ता होने पर भी परिग्रह के पाश में पड़ा हुआ पुरुष कोई विरला ही छूट सकता है, वृत्ति इसी में लटकी रहती है; परंतु यह वृत्ति किसी काल में सुखदायक या आत्महितैषी नहीं हुई है। जिन्होंने इसकी मर्यादा कम नहीं की, वे बहुत दु:ख के भोगी हुए हैं।

छ: खंडों को जीत कर आज्ञा मनाने वाले राजाधिराज चक्रवर्ती कहलाते हैं। इन समर्थ चक्रवर्तियों में सुभूम नामक एक चक्रवर्ती हो गया है। उसने छ: खंड जीत लिये इसलिए वह चक्रवर्ती माना गया; परंतु इतने से उसकी मनोवांछा तृप्त न हुई, अभी वह प्यासा रहा; इसलिए घातकी खंड के छ: खंड जीतने का उसने निश्चय किया। “सभी चक्रवर्ती छ: खंड जीतते हैं; और मैं भी इतने ही जीतूँ, इसमें महत्ता कौन सी? बारह खंड जीतने से मैं चिरकाल तक नामांकित रहूँगा, और उन खंडों पर जीवन पर्यंत समर्थ आज्ञा चला सकूँगा।” इस विचार से उसने समुद्र में चर्मरत्न(यान) छोड़ा, वह सर्व सैन्यादि का आधार था। चर्मरत्न के एक हजार देवता सेवक कहे जाते हैं; उनमें से प्रथम एक ने विचार किया कि न जाने कितने ही वर्षों में इससे छुटकारा होगा? इसलिए देवांगना से तो मिल आऊँ, ऐसा सोचकर वह चल गया; फिर दूसरा गया; तीसरा गया; और यों करते-करते हजार के हजार देवता चले गये। तब चर्मरत्न डूब गया; अश्व, गज और सर्व सैन्य सहित सुभूम नाम का वह चक्रवर्ती भी डूब गया। पापभावना में मरकर वह अनंत दु:ख से भरे हुए सातवें तमतमप्रभा नरक में जाकर पड़ा। देखो! छ: खंड का आधिपत्य तो भोगना एक ओर रहा; परंतु अकस्मात् और भयंकर रीति से परिग्रह की प्रीति से इस चक्रवर्ती की मृत्यु हुई, तो फिर दूसरे के लिये तो कहना ही क्या? परिग्रह पाप का मूल है; पाप का पिता है; अन्य एकादश व्रत को महादूषित कर दे ऐसा इसका स्वभाव है। इसलिये आत्महितैषी को यथासंभव इसका त्याग करके मर्यादापूर्वक आचरण करना चाहिये।


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