Shrimad Rajchandra

शिक्षापाठ 24: सत्संग (Mokshmala)

mokshmala ch 24

सत्संग सर्व सुख का मूल है। ‘सत्संग मिला’ कि उसके प्रभाव से वांछित सिद्धि हो ही जाती है। चाहे जैसा पवित्र होने के लिए सत्संग श्रेष्ठ साधन है। सत्संग की एक घड़ी जो लाभ देती है, वह लाभ कुसंग के एक करोड़ वर्ष भी नहीं दे सकते, अपितु वे अधोगतिमय महापाप कराते हैं, तथा आत्मा को मलिन करते हैं। सत्संग का समान्य अर्थ यह कि उत्तम का सहवास। जहाँ अच्छी हवा नहीं आती वहाँ रोग की वृद्धि होती है, वैसे जहाँ सत्संग नहीं वहाँ आत्मरोग बढ़ता है। दुर्गंध से तंग आकर जैसे नाक पर वस्त्र रख लेते हैं, वैसे ही कुसंग का सहवास बंद करना आवश्यक है। संसार भी एक प्रकार का संग है; और वह अनंत कुसंगरूप एवं दु:खदायक होने से त्याग करने योग्य है। चाहे जिस प्रकार का सहवास हो परंतु जिससे आत्मसिद्धि नहीं है, वह सत्संग नहीं है। आत्मा को जो सत्य का रंग चढ़ाये वह सत्संग है। जो मोक्ष का मार्ग बताए वह मैत्री है। उत्तम शास्त्र में निरंतर एकाग्र रहना यह भी सत्संग है; सत्पुरुषों का समागम भी सत्संग है। मलिन वस्त्र को जैसे साबुन तथा जल स्वच्छ करते हैं वैसे आत्मा की मलिनता को, शास्त्रबोध और सत्पुरुषों का समागम दूर करके शुद्ध करते हैं। जिसके साथ सदा परिचय रहकर राग, रंग, गान, तान और स्वादिष्ट भोजन सेवित होते हों, वह तुम्हें चाहे जैसा प्रिय हो, तो भी निश्चित मानो कि वह सत्संग नहीं प्रत्युत कुसंग है। सत्संग से प्राप्त हुआ एक वचन अमूल्य लाभ देता है। तत्त्वज्ञानियों ने मुख्य बोध यह दिया है कि सर्वसंग का परित्याग करके, अंतर में रहे हुए सर्व विकार से भी विरक्त रहकर एकांत का सेवन करो। इसमें सत्संग की स्तुति आ जाती है। सर्वथा एकांत तो ध्यान में रहना या योगाभ्यास में रहना यह है, परंतु समस्वभावी का समागम, जिसमें से एक ही प्रकार की वर्तनता का प्रवाह निकलता है वह, भाव से एक ही रूप होने से बहुत मनुष्यों के होने पर भी और परस्पर सहवास होने पर भी, एकांतरूप ही है और ऐसा एकांत मात्र संत-समागम में रहा है। कदाचित् कोई ऐसा विचार करेगा कि विषयीमण्डल मिलता है, वहाँ समभाव होने से उसे एकांत क्यों न कहा जाये? इसका समाधान तत्काल हो जाता है कि वे एक-स्वभावी नहीं होते। उनमें परस्पर स्वार्थ बुद्धि और माया का अनुसंधान होता है; और जहाँ इन दो कारणों से समागम होता है वह एक-स्वभावी या निर्दोष नहीं होता। निर्दोष और समस्वभावी समागम तो परस्पर शांत मुनीश्वरों का है; तथा धर्मध्यान प्रशस्त अल्पारंभी पुरुषों का भी कुछ अंश में है। जहाँ स्वार्थ और माया-कपट ही हैं, वहाँ सम-स्वभावता नहीं है और वह सत्संग भी नहीं है। सत्संग से जो सुख और  आनंद मिलता है वह अति स्तुतिपात्र है। जहाँ शास्त्रों के सुंदर प्रश्न होते हों, जहाँ उत्तम ज्ञानध्यान की सुकथा होती हो, जहाँ सत्पुरुषों के चरित्र पर विचार किया जाता हो, जहाँ तत्त्वज्ञान के तरंग की लहरें उठती हों, जहाँ सरल स्वभाव से सिद्धांत-विचार की चर्चा होती हो और जहाँ मोक्षजनक कथन पर पुष्कल विवेचन होता हो, ऐसा सत्संग महादुर्लभ है। कोई यों कहे कि सत्संग मण्डल में क्या कोई मायावी नहीं होता? तो इसका समाधान यह है- जहाँ माया और स्वार्थ होता है वहाँ सत्संग ही नहीं होता। राजहंस की सभा में काग देखाव से कदाचित् न भाँपा जाये तो राग से अवश्य भाँपा जायेगा; मौन रहा तो मुखमुद्रा से ताड़ा जायेगा; परंतु वह छिपा नहीं रह पायेगा। उसी  प्रकार मायावी स्वार्थ से सत्संग में जाकर क्या करेंगे? वहाँ पेट भरने की बात तो होती नहीं। दो घड़ी वहाँ जाकर विश्रांति लेते हों तो भले लें कि जिससे रंग लगे, और रंग न लगे, तो दूसरी बार  उनका आगमन नहीं होगा। जैसे पृथ्वी पर तैरा नहीं जाता, वैसे ही सत्संग से डूबा नहीं जाता, ऐसी सत्संग में चमत्कृति है। निरंतर ऐसे निर्दोष समागम में माया लेकर आये भी कौन? कोई दुर्भागी ही; और वह भी असंभव है। सत्संग आत्मा का परम हितैषी औषध है।


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2 Comments

  1. Superb 👌👌enlightening—🙂🙏

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