जीवन में दुख और पीड़ा निश्चित हैं। ये सांसारिक जाल में फंसे मनुष्यों को तो सताते ही हैं, किंतु स्व-केंद्र की ओर लौटते साधकों के जीवन में भी कम नहीं होते। अधिकतर साधक अपने संसार को संभालते हुए आध्यात्मिक पथ पर चलना पसंद करते हैं। ऐसे में जब पीड़ा का अनुभव होता है, तब हम इस बात का निश्चय कैसे करें कि वह भौतिक स्तर की है या आध्यात्मिक स्तर की?
कदाचित, पीड़ा और दुख ईश्वर की अनिवार्य परीक्षाएँ हैं, जिनसे हम अपनी पात्रता का मूल्यांकन कर सकते हैं। भौतिक स्तर पर दुख का मूल कारण स्वभाव का अज्ञान और आत्म-विमुखता है। इसका लक्षण पीड़ा, आक्रोश, क्रोध और ईर्ष्या जैसे निम्न भाव हैं।
परंतु आध्यात्मिक स्तर पर दुख मात्र एक संकेत है कि कुछ सुधार की आवश्यकता है – यह सुधार मान्यता, विचारों या कर्मों में हो सकते हैं। पीड़ा एक अवसर है – सुधार और विकास के प्रति हमारे उत्साह और प्रतिबद्धता को दृढ़ करने का। आध्यात्मिक स्तर पर, दुख रूपांतरण के लिए अनिवार्य है, जैसे जल को भाप में बदलने के लिए ऊष्मता अनिवार्य है।दुख का आरंभ भले ही भौतिक स्तर पर हो, परंतु उचित दृष्टिकोण से हम उस दुख की ऊर्जा का उपयोग आध्यात्मिक स्तर पर रूपांतरण के लिए कर सकते हैं। प्रश्न केवल इतना है कि हम अपने अस्तित्व के केंद्र की ओर बढ़ रहे हैं या उससे दूर जा रहे हैं? यही दुख और पीड़ा की कसौटी है।
Beautiful way to observe our pain and overcome.
I am grateful for your each n every word which helps me to proceed me on my path. Thank you prabhu.
शत्-शत् प्रणाम सदगुरु प्रभु।
आहो उपकार, श्री गुरुजी।
Due to your Grace, I get the guidance to observe pain & how to overcome. Each word of each blog is very useful to go forward on my path.
Thank you Sri Guruji.