SpiritualitySri Guru's Notes

क्या मैं सद्गुरु की शरण में हूँ ?

या केवल व्यक्तित्त्व का आकर्षण है?

इस लेख से श्री बेन प्रभु गुरु-शिष्य परम्परा की पवित्रता को व्यक्त करते हैं और ऐसे 4 बिंदु उपनिषद् में से लिखते हैं जिससे यह मालूम पड़ता है कि हम वास्तव में सद्गुरु की शरण में है या मात्र किसी व्यक्तित्त्व का आकर्षण है…

भारतीय अध्यात्म संस्कृति में गुरु-शिष्य परंपरा अत्यंत प्रचलित है। सत्-चित्त-आनंद स्वरुप के विषयभूत जानकारी तो शास्त्र, किताब, सत्संग, समागम आदि से मिल सकती है लेकिन मात्र जानकारी का संग्रह कर लेना जानना नहीं होता। सच्चिदान्द स्वरुप को जानने, अनुभव करने के लिए गुरु-शिष्य परंपरा के अनमोल सूत्रों में बंधना अनिवार्य होता है। आधुनिक मनुष्य ऐसे सात्त्विक बंधन को तो पराधीनता मानता है और सदा विचलित व व्याकुल रखने वाले बंधन ढ़ोने को अपना कर्त्तव्य मानता है। व्याकुलता के ताने-बाने से बुने कर्तव्यों के इस जाल में उलझा मनुष्य, आज इस जाल को तोड़ने की हर नाकाम कोशिश कर रहा है परन्तु गुरु-शिष्य परंपरा की विरासत को अपनाकर स्वाधीन होने का एक मात्र ढंग उसे रूचता नहीं। कारण क्या ?

सद्गुरु को मानने के विविध कारण

आज का मनुष्य वर्ग मुख्य रूप से दो वर्गों में बँटा है — गुरु-शिष्य परमपरा को मानने वाला और नहीं मानने वाला। सभी के अपने अपने कारण व दृष्टिकोण है इस परंपरा को मानने के या नहीं मानने के। आज इस लेख के माध्यम से मैं इस परंपरा को मानने वाले लोगों में यह सजगता लाना चाहती हूँ कि वह वास्तव में गुरु-शिष्य परंपरा का अनुशरण कर के परम के मार्ग पर चल रहे हैं या फिर किसी गुरु को मान कर अपने दैनिक जीवन को मात्र सुचारु रूप से जीने की नहींवत चेष्टा में उलझे हैं। या फिर गुरु का उपयोग अपने व्यापार-परिवार-स्वास्थ्य-संपत्ति की आपूर्ति व सुविधा बनाये रखने के लिए ही किया जा रहा है ?

गुरु-शिष्य परंपरा क्या है ?

गुरु-शिष्य परंपरा वह है जहाँ श्री गुरु के निर्मल आत्मज्ञान से बहती प्रगाढ़ ज्ञान-धारा और निष्काम करुणा धारा किसी के जीवन को रूपांतरित कर दे। यहाँ जिसका जीवन रूपांतरित होता है उसे शिष्य कहा जाता है ! बाकी सब भी श्री गुरु की ज्ञान धारा व निष्काम प्रेम का अनुभव तो करते हैं परन्तु रूपांतरित नहीं होने के कारण वे मात्र श्रोता हैं, अनुयायी हैं, प्रशंसक हैं परन्तु शिष्य नहीं है। अध्यात्म परंपरा का सिद्धांत है कि श्री गुरु की प्रत्यक्ष बहती प्रचंड धारा मात्र शिष्य रुपी पात्र में ही गिरती है, अन्यथा नहीं। और इसलिए अनुयायी या प्रशंसक वर्ग जीवन में चेतना की परम अनुभूति से कोसों दूर रह जाता है। वह सुनता सब कुछ है परन्तु अनुभव-शून्य होने के कारण जीवन में दिव्य आनंद की धारावाही अनुभूति से वंचित ही रहता है।

क्या मैं सद्गुरु की शरण में हूँ ?

समय है, स्वयं से यह प्रश्न करने का कि क्या मैं सद्गुरु की सरन में हूँ ? मात्र श्री गुरु को सुनना, उनके आसपास रहना, उनकी बातें करना — यह शरणागति नहीं है। यह तो किसी के साथ का शुभ ऋणानुबंध या किसी के व्यक्तित्त्व का आकर्षण है जिसे किसी भी अपेक्षा से गुरु-शिष्य परंपरा की महत्त-संज्ञा नहीं दी जा सकती। जहाँ गुरु की प्रचंड धारा में शिष्य के भीतर का ‘सहजात्मस्वरूप’ जागृत हो रहा हो वहीँ इसे गुरु-शिष्य परंपरा कहा जा सकता है। इससे अन्यथा सभी कुछ स्वयं से धोखा है, छल है। गुरु के समागम मात्र को गुरु-शिष्य परंपरा कदापि नहीं माना जा सकता।

भारतीय संस्कृति के शिरोमणि ‘उपनिषद्’ इसी तथ्य के प्रति हमें सावधान करने के लिए ऐसे चार मूल-बिंदु बताते हैं जो हमें स्पष्ट रूप से सूचित करते हैं कि हम गुरु-शिष्य परम्परा से अपने परम अस्तित्व तक यात्रा कर रहे है या फिर केवल व्यक्तित्त्व के आकर्षण में यह विशेष जीवन व्यर्थ गँवा रहे हैं –

1. ज्ञान समृद्धि

यदि मनुष्य समर्पण भाव से गुरु-शिष्य परम्परा में प्रविष्ट हुआ है तो सद्गुरू की ज्ञान धारा उसकी उलझन, दुविधा, शंका, अज्ञान आदि को टालने का शुभ निमित्त बनती है। मनुष्य का शिष्य भाव जैसे-जैसे प्रगाढ़ होता है वैसे-वैसे वह स्वयं को प्रश्नों से आज़ाद महसूस करता है। उसके जीवन में समाधान-बुद्धि खिलती है जो किसी भी स्थिति में से आत्म-हित के लिए उपयोगी निर्णय लेती है। ज्ञान का संग्रह करने से ज्ञान-समृद्धि नहीं होती परंतु उपयुक्त समय पर ज्ञान पूर्वक का आचरण ही ज्ञान-समृद्धि कहलाता है।

ज्ञान का संग्रह करने से ज्ञान-समृद्धि नहीं होती परंतु उपयुक्त समय पर ज्ञान पूर्वक का आचरण ही ज्ञान-समृद्धि कहलाता है।

2. दुःख की क्षीणता

ज्ञान के समरध होते ही पर वस्तु-स्थिति-व्यक्ति के स्वरूप का बोध स्पष्ट होने लगता है। इस कारण से उनमें होते परिवर्तन का सहज स्वीकार होता है जो दुःख के अनुभव को क्षीण करता है। हमारे सभी दुखों का कारण ही यह है कि जिसे बदलना नहीं चाहते वह बदल जाता है और जो बदल जाता है उसका स्वीकार नहीं होता। परंतु जब सद्गुरू के वचन बल से परिवर्तन की सत्यता उजागर होती है तो हर बदलाव के साथ स्वीकार का भाव ही प्रगाढ़ होता है।

3. अकारण आनंद का विस्फोट

ज्यों-ज्यों दुःख के क्षण क्षीण होते है अंतरिक आनंद उजागर होने लगता है क्योंकि मनुष्य का अस्तित्त्व बना ही है उस सामग्री से जिसे हम सत्-चित्त-आनंद कहते है। श्री गुरु का ज्ञान-गांभीर्य जब शिष्य के हृदय में उतरता है तो निज स्वरूप की स्पष्टता होने लगती है। यह आंतरिक स्पष्टता ही स्वयं में अकारण आनंद की सहज अनुभूति कराती है। अकारण आनंद उस विशेष स्थिति को कहते है जहाँ आनंद का कारण न वस्तु है न व्यक्ति, न स्थिति है न स्वप्न, न मन है न बुद्धि, न विचार है न आचार, मात्र अस्तित्त्व की कोरी-स्लेट जहाँ केवल सघन आनंद ही है!

आंतरिक स्पष्टता ही स्वयं में अकारण आनंद की सहज अनुभूति कराती है।

4. अपारता का उदय

अस्तित्त्व के पटल से जब आनंद बरसता है तब शिष्य को जीवन के हर क्षेत्र में अपारता, बहुलता की अनुभूति होने लगती है जो आंतरिक संतोष देती है। मनुष्य के जीवन की सारी दौड़ ही इसलिए है क्योंकि वह भीतर से हर क्षेत्र में असंतुष्ट है। परंतु स्मरण रहे, बाहर की किसी भी वस्तु-स्थिति-व्यक्ति की प्राप्ति से भीतर के असंतोष का गड्ढा कभी नहीं भरता। यदि तुम सद्गुरू के नाम पर सिर्फ़ व्यक्ति के प्रभाव में हो तो असंतुष्टि तुम्हारे जीवन में छाई रहेगी लेकिन यदि तुमने सद्गुरू की पहचान पूर्वक गुरु-शिष्य परम्परा में क़दम उठाया है तो अपारता के उदय के कारण सभी असंतोष अस्त हो जाते हैं।

बाहर की किसी भी वस्तु-स्थिति-व्यक्ति की प्राप्ति से भीतर के असंतोष का गड्ढा कभी नहीं भरता।

समाधि के मार्ग को बिना सद्गुरू के समझना व उस पर चलना लगभग असम्भव है। सद्गुरू की इसमें अनिवार्य आवश्यकता होने पर भी यदि हम मात्र श्री गुरु के व्यक्तित्त्व के प्रभाव और प्रशंसा में उलझे हैं तो परम तक पहुँचने के एक और सुअवसर को खोने जा रहे हैं। श्री गुरु की यथार्थ पहचान कर के — उनके कहे वचन का जीवन में यथा स्थान उपयोग करके स्वयं में रूपांतरण लाना होगा। तभी उपनिषद् में कहे यह चार मूल बिंदु अध्यतमा जीवन के आधार-स्तम्भ बन जाएँगे। यही इस जीवन की सम्पूर्ण सकारात्मकता होगी। अन्यथा, बहुत भटके और अभी अंत सुदूर ही रहेगा।

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