GuruLife with a GuruSamadhan Prakash

समाधान प्रकाश — भाग 7

To read this blog in English: Click Here »

समाधान प्रकाश की इस शृंखला में साधकों के प्रश्नों के आधार पर समाधान दिए जा रहे हैं। मुझे प्रसन्नता है कि इन प्रकाशनों के साथ साधक जीव अपने दोष और बाधाओं को पहचान रहे हैं और साथ-ही-साथ अपने में कैसे परिवर्तन लाना है उसका भी प्रयास कर रहे हैं। समाधान प्रकाश के इस अंक में हमारा विषय है — SRM का तीसरा आधार ‘संयम’। प्रेम और सेवा के आधार-स्तंभों को समझने के पश्चात् अब संयम के आध्यात्मिक पहलू को हम समझेंगें। जन्मोंजन्म के इस परिभ्रमण में हमने अनेक बार गृह-त्याग किया, दीक्षित हुए, जप-तप आदि से आराधना भी करी, परंतु ‘संयम’ का सम्यक् स्वरूप नहीं समझने के कारण मुक्ति का अनुभव नहीं हुआ। समाधान प्रकाश के इस अंक में हम संयम का यथार्थ स्वरूप समझने की कोशिश करेंगें। वैसे भी, कुछ ही दिनों में चातुर्मास काल आरंभ होने जा रहा है जो संयम-धारण करने के लिए उत्तम-काल है। उसमें भी यदि यह संयम स्वरूप को समझ कर किया जाए तो जन्मोंजन्म के संस्कार को पलटने का सशक्त कारण बन जाता है।

— श्री गुरु

 


१. संयम का स्वरूप क्या है?

प्रश्न: संयम शब्द को हमने बचपन से ही सुना है। साधु-संतों के पास भी जब जाते हैं तो वह किसी-न-किसी प्रकार का त्याग करवाते हैं, जो वास्तव में अरुचिकर ही लगता है। आप कहते हैं ‘धर्म यानि आनंद’, परंतु हमें तो त्याग में कोई आनंद नहीं आता। ऐसे में, श्री गुरु, संयम का यथार्थ स्वरूप क्या समझना चाहिए?

समाधान: संयम का सामान्य अर्थ होता है ‘त्याग’। किसी भी वस्तु के त्याग को लोक-भाषा में संयम कह दिया जाता है। परंतु अध्यात्म की इस आत्म-विकास की यात्रा में हम संयम का इतना संकुचित अर्थ नहीं मानते हैं। संयम अर्थात् विचार पूर्वक त्याग में प्रवृत्त होना। उदाहरण के लिए: कोई व्यक्ति मिठाई का त्याग करके उसे संयम कहे, परंतु उसके भीतर अपने त्याग की गिनती, बखान, अरुचि आदि के भाव रहते हों तो यह ‘संयम’ नहीं है। वस्तु का त्याग हो जाने से उसके प्रति रही आसक्ति का त्याग नहीं हो जाता। परंतु जब वस्तु के भोग की व्यर्थता समझ कर त्याग किया जाता है, तो उसे ‘संयम’ कहते हैं। और जिस वस्तु की व्यर्थता ही लग गई हो, तो उसका हिसाब क्या रखना! गिनती के बिना सहज भाव से हुआ त्याग ही वास्तव में ‘संयम’ है, जिसमें मूलभूत रूप से वस्तु के प्रति की आसक्ति का त्याग होता है। यह आसक्ति-त्याग ही आनंद का कारण होती है और तभी यह धर्म है।


२. क्या व्यर्थता के बोध बिना भी त्याग करना चाहिए?

प्रश्न: श्री गुरु, आप कहते हैं कि जब वस्तु के भोग की व्यर्थता लगती है, तभी त्याग यथार्थ होता है। परंतु हमें अभी वस्तु की व्यर्थता नहीं लगती है। भोग में रस आता है, परंतु भोगने के पश्चात् खेद भी होता है। ऐसे में हमें त्याग करना चाहिए कि नहीं?

समाधान: भोग में रस और पश्चाताप दोनों होते हैं — यह साधक की व्यथा है। इसे तो सनातन नियम मानना चाहिए कि भोग वृत्ति परिभ्रमण का कारण है और संयम-वृत्ति मुक्ति का कारण है। भोग का त्याग सदा ही उत्तम साधन है, परंतु उस त्याग के पीछे रहे आशय को समझ कर यदि त्याग किया जाए, तो ही वह संयम कहलाता है। त्याग साधन है, संयम साध्य है। हमारे त्याग के पीछे रहा हुआ आशय तीन प्रकार का होता है:

  • पहला: वस्तु की व्यर्थता के बोध से किया हुआ त्याग। यह त्याग प्रत्येक सद्गुरु के जीवन में होता है।
  • दूसरा: स्वयं के मन पर अंकुश लगाने के लिए किया हुआ त्याग। यह त्याग साधक के जीवन का पुरुषार्थ होता है।
  • तीसरा: परिवार आदि में आदर्श स्थापित करने के लिए किया हुआ त्याग। इस प्रकार का त्याग पुराण पुरुषों (भगवान राम, महावीर, बुद्ध आदि) के जीवन में देखने में आता है जिनकी आंतरिक दशा सदा अलिप्त है परंतु समाज में, राष्ट्र में आदर्श स्थापित करने के लिए वह त्याग से समृद्ध जीवन जीते हैं, जो दूसरों के लिए प्रेरणा-रूप बनता है।

३. संयम बंधन क्यों लगता है?

प्रश्न: हम जब किसी भी संयम का नियम लेते हैं तो आरंभ के कुछ दिन तो मन एकदम वश में रहता है, परंतु उसके बाद संयम बंधन लगता है। ऐसे में हमें क्या करना चाहिए?

समाधान: मन का स्वभाव परिवर्तनशील है। कभी भोगने की तत्परता होती है, तो कभी भोग की व्यर्थता लगती है। यदि मन का स्वभाव ऐसा न होता तो मोक्ष हथेली में होता! परंतु स्वयं के ऐसे ही मन को समझाना है। संस्कार अपना कार्य करेंगें ही, परंतु स्वयं को अपने विवेक के साथ त्याग की आधार-शिला पर तटस्थ रहना है। जैसे-जैसे साधक की आंतरिक भूमि तैयार होती है, वैसे-वैसे उसे संयम बंधन नहीं लगता अपितु सुरक्षा लगती है। जैसे – कोई अपने खेतों के आसपास बाड़ (fencing) लगाता है तो वह बाड़ बंधन नहीं है, परंतु खेतों की सुरक्षा है। ठीक इसी तरह संयम के नियम जब साधक को सुरक्षा लगने लगें, तो समझना चाहिए कि उसकी आंतरिक भूमि अब तैयार हो रही है।

भोग-काल में साधक को यह निश्चय करना चाहिए कि जो मन भोग के लिए तत्पर होता है वह परिवर्तनशील ही है। यदि उस भोग-उग्रता के समय को कुछ घंटों के लिए ही टाला जाए, तो भोग-इच्छा स्वयं ही नष्ट हो जाती है। मेरे जीवन का यह अनुभव है कि मन के भरोसे त्याग की शुरुआत तो हो सकती है, परंतु त्याग का टिकना किसी सद्गुरु के प्रति के अनन्य प्रेम में ही संभव होता है। इसलिए मेरा यह अचल निर्णय है कि संयम नियम किसी सद्गुरु की साक्षी और आज्ञा से ही लेने चाहिए।


४. क्या मन हमारा दुश्मन है?

प्रश्न: सभी कहते हैं कि मन तो हमारा दुश्मन है, उसकी सुन कर ही हमने इस परिभ्रमण की परंपरा को बढ़ाया है, उसकी बात सुननी ही नहीं चाहिए, जो मन कहे उससे विपरीत ही करना चाहिए आदि। तो क्या त्याग करने में मन को समझाने की कोई भी आवश्यकता नहीं होती? हमें तो मन ही सबसे बड़ी बाधा लगता है। 

समाधान: जीवन का अनुभव सभी का यही है कि मन ही बाधा है। परंतु मेरा दृष्टिकोण अलग है क्योंकि मेरा मन के साथ का संबंध ही कुछ अलग जाति का है। मैंने कभी मन को दुश्मन नहीं माना, परंतु मेरे लिए मेरा मन बालक है। कभी सरल तो कभी जटिल, कभी जिद्दी तो कभी एकदम आज्ञाकारी, कभी चंचल तो कभी अनुशासन में। मैंने मन को इन दोनों आयामों के साथ देखा है, क्योंकि शुभ भाव भी इसी मन में उठते है और अशुभ भाव भी। ऐसे में मैं मन को अपना दुश्मन नहीं मान सकती क्यूँकि जीवन में जो कुछ अच्छे-शुभ-उचित भाव उठे हैं वह भी मन की ही सत्ता है। साधकों को आवश्यकता है कि मन के साथ के अपने संबंध को पुनः स्थापित करें। यह मन दुश्मन नहीं है परंतु बालक जैसा है, और बालक को संभालने के लिए कोई बहुत बड़ी सेना नहीं चाहिए, परंतु माँ का हृदय चाहिए! 


५. क्या संयम अनिवार्य है?

प्रश्न: सेवा करने में हमारा बहुत उत्साह रहता है, परंतु त्याग-संयम में वैसा उत्साह नहीं रहता। तो क्या हमें सेवा को ही अपना धर्म मानना चाहिए या संयम अनिवार्य ही है?

समाधान: धर्म उसे कहा जाता है जो हमें अपने स्वभाव में ले आए। SRM के चार आधार एक ऐसी आध्यात्मिक योजना है जो साधक को उसके सत्-चित्त-आनंद स्वभाव की ओर ले जाती है। प्रेम से मान्यता में रूपांतरण करना है और उसके बाद सेवा से निष्काम होने की वृत्ति को दृढ़ करना है। इतना होने के पश्चात् ही अब साधक जीव स्व-स्वरूप के अनुभव का अधिकारी बनता है। ऐसे अधिकारी जीव को अपनी ऊर्जा के संरक्षण के लिए ‘संयम’ की अनिवार्यता है। मात्र सेवा करने से और संयम में प्रवेश नहीं करने से साधक की ऊर्जा का प्रवाह बहिर्मुख (संसार की तरफ़) ही रहता है। इसके परिणाम स्वरूप साधक अपने अगले पड़ाव ‘साधना’ में प्रवेश ही नहीं कर पाता। इसलिए संयम अनिवार्य है। 


६. हमारे आंतरिक विकास के लिए क्या अधिक आवश्यक है?

प्रश्न: हमें कैसे पता चल सकता है कि हमारे आंतरिक विकास के लिए हमें सेवा चाहिए, संयम में आना चाहिए या साधना करनी चाहिए? क्या इसके कोई ऐसे मापदंड हैं जिससे हम यह निर्णय ले सकें कि हमारे लिए क्या आवश्यक है?

समाधान: अध्यात्म का मार्ग समग्र विकास का मार्ग है और मन की आदत चुनाव करने की है। परंतु इस मार्ग में किसी भी एक का चुनाव संभव ही नहीं है। हाँ, यह अवश्य है कि अनेक-अनेक साधनों के बदले SRM में हमने मात्र चार साधन-आधार की ही मुख्यता करी है। अब इन चार में से भी आप चुनाव करना क्यों चाहते है..? SRM के चार आधार अपने में एक संपूर्ण मोक्ष मार्ग है अर्थात् चारों ही आवश्यक हैं। जैसे: हम यदि यहाँ से जयपुर जाने के लिए यात्रा आरंभ करते हैं, तो रास्ते में बगीचे भी आएँगें और श्मशान भी, घर भी आएँगें और दुकान भी, कहीं रण भी होगा तो कहीं पर्वत भी — ये सभी मार्ग हैं, हम चुनाव नहीं कर सकते। इसी प्रकार, प्रेम-सेवा-संयम-साधना संपूर्ण मार्ग है समग्र विकास का। किसी भी एक का चुनाव करना मूर्खता है। हाँ, यह अवश्य होता है कि किसी के जीवन में किसी समय सेवा अधिक को, संयम कम या किसी के जीवन में साधना का अवसर अधिक हो और सेवा का कम। परंतु न्यूनाधिक मात्रा में चारों अनिवार्य हैं।


७. क्या साधना संयम से उत्तम है?

प्रश्न: जो साधक साधना के स्तर पर पहुँच चुका है क्या उसे भी सेवा और संयम करने चाहिए या फिर साधना में ही उनका समावेश हो जाता है?

समाधान: प्रेम-सेवा-संयम-साधना हमारे समग्र विकास के आंतरिक मार्ग हैं। प्रेम यदि मान्यता को बदलता है और ‘सर्वात्म में समदृष्टि’ की स्थापना करता है, तो सेवा इस मान्यता का आचरण में आना है। यह सेवा किसी अस्पताल में जाकर या लंगर लगा कर नहीं करनी है, परंतु अपने ही घर के लोगों के बीच रह कर निष्काम दृष्टिकोण को उजागर करना है। ऐसे दृष्टिकोण में ही वह कर्म-व्यवस्था बनती है जिससे साधक में ऐसे विचार प्रगाढ़ होते हैं कि वह अब स्वयं को अनुभव करने की ओर आगे बढ़ना चाहता है। यहीं से जीव में अंतर्मुखता (स्वानुभव की तरफ़) के भाव प्रकट होते हैं। अब ऐसी भूमिका आती है कि साधक को स्व-अनुभव के प्रगाढ़ भाव तो हैं, परंतु उतनी शक्ति नहीं है जो उसे स्वयं में स्थिर कर सके। ऐसी स्थिति में साधक की बाहर भागती ऊर्जा को रोकने के लिए संयम का आधार लेना अनिवार्य होता है। जब संयम से स्वयं की ऊर्जा का संरक्षण होता है, तभी श्री सद्गुरु द्वारा दी हुई साधना से उसकी ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन संभव होता है, जो उसे निज स्वरूप का अनुभव करने का आधार बनती है।


८. क्या संयम और साधना एक दूसरे पर आश्रित हैं?

प्रश्न: कितनी ही बार ऐसा अनुभव किया है कि जब हम संयम में होते हैं तब साधना भी अच्छी होती है और भावों में भी विशेष उत्साह व प्रेम बने रहते हैं। तो क्या संयम और साधना एक दूसरे पर आश्रित हैं?

समाधान: यह चारों ही आधार एक-दूसरे पर आश्रित हैं। प्रेम हमारी मान्यता को बदलने का पुरुषार्थ है कि यहाँ सभी कुछ संयुक्त है तो साधना उस ‘संयुक्ति’ (oneness) का अनुभव है। इस अनुभव तक पहुँचने के लिए सेवा और संयम दो विशेष पड़ाव है। स्मरण रहे, जो साधक साधना के परम शिखर पर पहुँच गया है उसके लिए भी सेवा और संयम उसका स्वभाव बन जाते हैं। यदि ऐसा न होता तो भगवान महावीर, बुद्ध, नानक आदि अपने परम स्वरूप को जानने के पश्चात् लोक-कल्याण के लिए पूरे जीवन भर प्रयासरत नहीं रहते। प्रत्येक स्वरूप-निष्ठ जीव परम मिलन के पश्चात् सेवा व संयममयी जीवन जी कर साधक जीवों के लिए आदर्श स्थापित करते हैं। इसलिए प्रेम-सेवा-संयम-साधना चारों को एक दूसरे पर आश्रित समझना चाहिए और यथा-समय व यथा-शक्ति इनमें संलग्न रहना चाहिए।

इन प्रश्नों के समाधान पढ़ते हुए यह स्वाभाविक है कि साधक के मन में कुछ नए प्रश्नों का जन्म हो। ऐसे में हम आपको अपने प्रश्न यहाँ लिखने के लिए आमंत्रित करते हैं। आपके परमार्थ संबंधित प्रश्नों का समाधान श्री गुरु से प्राप्त हो सकता है। समाधान प्रकाश के आगामी संकलन में कुछ प्रश्नों के समाधान प्रकाशित किए जाएँगें।


समाधान प्रकाश श्रृंखला के पिछले ब्लॉग यहाँ पढ़ें:
भाग 1 | भाग 2 | भाग 3 | भाग 4 | भाग 5भाग 6
ऐसे ही कुछ प्रश्नों के समाधान विस्तार से पढ़ें “समाधान” किताब में। यहाँ पाएँ »

Bliss of Wisdom is a blog for seekers who are in search of their true self. It is published by Shrimad Rajchandra Mission Delhi – a spiritual revolutionary movement founded by Sri Guru. She is a spiritual Master who has transformed innumerable lives through her logical explanations and effective meditation techniques. To know more, visit srmdelhi.org.

You may also like

4 Comments

  1. Thank a lot Prabhu 🙏🙏🌹🌹😍😍

  2. Does prem , seva , sanyam and sadhna come in order in life of sadhak?

  3. Thankyou Sri guru for your infinite grace 🙏🏻🙏🏻

  4. Pranam Sri Ben Prabhu 🙏🙏🙏🌹🌹🌹……muje aapse bat karni he to me msg karti hu …..me two months se hi aapke video se parichit hui lekin lagta he ahi me dundh rahi thi …..abhi gurupurnima ke avasar pe meri pyas badh gayi…….hamare beach distance physically jayda he…aapka charno me vandan karne ki chah badh rahi he ….te bhav abhi aankho se pani ke sath aapko pratyaksh milne ke chah ke he……Surat ya Ahmedabad me aayo to prabhu me aapka darshan karne ke liye aaungi….. 🙏🙏🙏🌹🌹🌹

Leave a reply

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

More in:Guru