हर व्यक्ति को कर्म करना आवश्यक है, पर ज़रूरी नहीं की उसका हर कर्म उसे बंधन में ही डाले। शुक्रिया से क्षमा तक, श्री बेन प्रभु इस लेख में ऐसे 5 तरीक़े बता रहे हैं जिनसे कर्म के बंधन को अटकाया जा सकता है।
सभी धर्म सभ्यताएँ कर्म सत्ता का स्वीकार करती हैं। नाम चाहे कर्म सिद्धांत हो या कर्म मीमांसा, कर्म प्रकृति हो या कर्म ग्रंथ, सभी धर्म एक मत से यही कहते है की इस आत्मा पर कर्म का ही बंधन है। अनंत आकाश जैसे अपने आप में स्वच्छ, निर्मल और अलिप्त है किंतु जब उस पर बादल छा जाते है या आँधी–तूफ़ान आने लगते है तब स्वच्छ आकाश भी अलिप्त व निर्मल नहीं दिखता। इसी प्रकार निश्चय दृष्टि से आत्मा स्वतंत्र है, स्वच्छ है, निर्लिप्त है परंतु उस पर कर्म रूपी बादलों का घेराव है और भावना रूपी आँधी-तूफ़ान के उठने से मूलभूत शुद्धता व स्वच्छता का अनुभव नहीं हो पाता।
कर्म सत्ता आत्मिक सत्ता से बलवान नहीं
मनुष्य के आत्मिक आकाश पर कर्म के कितने बादल है इसका अंदाज़ा लगाना हमारे लिए असम्भव है लेकिन अध्यात्म परम्परा के पास ये सूत्र सदा से मौजूद है कि इन कर्म रूपी बादलों को हटाकर आकाश की स्वच्छता का अनुभव कैसे किया जाए। अध्यात्म की गहन सूझ निश्चित रूप से यह जानती है कि भावना रूपी आँधी-तूफ़ान जब उठते हैं तब चैतन्य घर को कैसे अप्रभावित रखा जा सकता है। यदि मनुष्य इन सूत्रों के प्रति सजग व सावधान हो जाए तो जीवन के किसी भी विपरीत या विचित्र दिखने वाली परिस्थिति में आत्मिक आनंद की अनूभूति कर सकता है। कर्म सत्ता आत्मिक सत्ता से बलवान नहीं होती परंतु मनुष्य को उन कर्मों के साथ उचित न्यायपूर्वक व्यवहार करना नहीं आता। इसलिए सघन बादलों में ऐसा उलझ जाता है कि बादलों के निवास स्थान की अनंत व्यापकता को महसूस ही नहीं कर पाता।
मनुष्य के जीवन का हर क्षण कर्म उदय व कर्म बंध की सुनिश्चित धारा में बहता जा रहा है। यहाँ हर नया कर्म उदय नवीन कर्म बंध कर जाता है इसलिए हमें लगता है कि इस धारा को तोड़ा नहीं जा सकता परंतु यही मनुष्य जीवन की सर्वप्रियता है कि इस जीवन में हम यह धारा तोड़ सकते है। अनादि काल से युगपत चली आ रही कर्मुदय व कर्मबंध की इस शृंखला को तोड़ा जा सकता है।
अब हम उन पाँच तरीक़ों का उल्लेख करते हैं जिनका यथोचित उपयोग कर्म-उदय के समय में नए कर्म बँधने से अटकाता हैं।
1. धन्यवाद का भाव
जीवन में जैसा भी कर्म का उदय आए, सर्वप्रथम उसके प्रति धन्यवाद के भाव से भरो। जैसे ही मन धन्यवाद के भाव में प्रवेश करता है उसी क्षण शिकायतों का ताना-बाना टूटने लगता है। सिद्धांत कहता है कि कुछ भी सही करने का एक ही ढंग होता है परंतु ग़लत करने के हज़ारों ढंग हो सकते हैं। उदाहरण के लिए — किसी को क्षमा करना हो तो एक ही ढंग होता है लेकिन किसी पर क्रोध करना हो तो मन अलग अलग ढंगों को ढूँढ ही लेता है। इसी प्रकार जब हम किसी भी कर्म-उदय प्रसंग में धन्यवाद के भाव से भरेंगे तो विचारों की इधर-उधर भागती भीड़ स्वयं ही थम जाएगी और कर्म-उदय प्रसंग में नया कर्म-बंध कम से कम होगा। यह स्मरण रहे कि कर्म का बंध मात्र कुछ करने से ही नहीं होता अपितु विचार मात्र से भी कर्म-बंध होता है।
सिद्धांत कहता है कि कुछ भी सही करने का एक ही ढंग होता है परंतु ग़लत करने के हज़ारों ढंग हो सकते हैं।
2. प्रेमपूर्ण कर्म
कर्म करने के प्रसंग में यह दृढ़ता होनी चाहिए कि कर्म प्रेमपूर्ण रूप से हो रहा हो। प्रेमपूर्ण कर्म यानी — उस कर्म को करने का उद्देश्य है कि स्वयं का उपयोग करे दूसरों के लिए। सामान्य रूप से मनुष्य हर कर्म करना चाहता ही इसलिए है कि जिसको करने से दूसरे उससे प्रभावित हो, आकर्षित हो। परंतु, जब हमारे कर्म दूसरों को प्रभावित करने के लिए नहि होते अपितु दूसरों को सहयोग देने के लिए होते हैं तब कर्म-बंध स्वतः ही शिथिल होता है।
3. उद्देश्य का अवलोकन
प्रत्येक कर्म को करने के समय में जब मनुष्य उसके उद्देश्य के प्रति सावधान होता है तो कर्म का उदय नए कर्म-बंध को उचित लक्ष्य प्रदान करता है। यदि शुभ कार्य करने में हमारा उद्देश्य ही मान प्राप्ति, धन संग्रह, इच्छा पूर्ति आदि का है तो यह शुभ कर्म हमारे नए कर्म-बंध को संसार परिभ्रमण की ओर ही धकेलेंगे। अध्यतम संस्कृति का यह अत्यंत मूल्यवान सिद्धांत है की किसी भी कर्म को करने से पहले, करते समय और कर लेने के बाद भी उसके उद्देश्य का अवलोकन होता ही रहना चाहिए। उद्देश्य के धुँधलेपन में लक्ष्य की स्पष्टता और प्राप्ति कभी नहीं हो सकती।
4. प्रकृति पर पहरा
कई बार कर्म करते समय धन्यवाद का भाव, प्रेमपूर्णता व उद्देश्य का अवलोकन यथार्थ होने पर भी कर्म करने का अहंकार सूक्ष्म-रूप से मौजूद होता है। जब हम अपने कर्म की तुलना दूसरों से करते रहते हैं तब अहंकार के भाव हमारी कर्म सत्ता को और अधिक प्रचंड कर देते है। कर्म निवृत्ति के मार्ग पर अपने आंतरिक भाव, प्रकृति, सूक्ष्म विचारों के प्रति सजग और सावधान रहना चाहिए। अहंकार एक ऐसा सूक्ष्म बीज है जिसमें से पुनः सारी मलिनताओं का वटवृक्ष तैयार हो जाता है।
अहंकार एक ऐसा सूक्ष्म बीज है जिसमें से पुनः सारी मलिनताओं का वटवृक्ष तैयार हो जाता है।
5. क्षमापूर्ण हृदय — क्षमा माँगने व देने की सहज वृत्ति
अनादि काल के विपरीत संस्कार और अज्ञान पूर्ण समझ से प्रभावित होकर हम अनुचित कार्य कर लेते है। तब इस कर्म जाल से आज़ाद होने के लिए क्षमा रूपी अस्त्र-शस्त्र सदैव हमारे पास होने चाहिए। युद्ध भूमि में जैसे अस्त्र का उपयोग स्वयं को बचाने के लिए होता है और शस्त्र का प्रयोग शत्रु को मारने के लिए होता है, उसी प्रकार कर्म-ध्वंस के लिए क्षमा माँग कर हम स्वयं को मलिन होने से बचाते है और क्षमा दे कर हम दूसरे के साथ के अपने ऋणानुबंध से आज़ाद होते हैं। पूर्व में हुए दुष्कृत्य के प्रति क्षमा माँगना व दूसरों द्वारा हमारे साथ हुए अन्याय-अनीति को भी उदार हृदय से क्षमा करना — यह हमें कर्म उदय के काल में भी कर्म-बंध से आज़ाद करता है।
कर्म की उदय-बंध व्यवस्था को गहनता से समझ कर यथार्थ दृष्टिकोण के साथ किया हुआ आचरण, कर्म के उदय-काल में भी मनुष्य को नया कर्म बाँधने में समर्थ नहीं होता और पुराना कर्म-बंध क्षीण होते होते क्षय हो जाता है। यही इस मनुष्य जीवन की सफलता और सार्थकता है।