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मुमुक्षुता की भूमिका — भाग 3/3

श्रीमद् राजचंद्रजी ने अपने काव्य ‘इच्छे छे जे जोगिजन’ में मुमुक्षुता की तीन भूमिकाएँ लिखी है। उन्हीं तीन भूमिकाओं के लक्षणों को समझाते हुए श्री बेन प्रभु इन ३ लेखों की शृंखला से हमें कुछ महत्वपूर्ण शब्द समझाते हैं । यह लेख तीसरी भूमिका पर आधारित है।

{ लेख का पहला भाग पढ़िए }

मुमुक्षु यानि निज-शुद्धता को प्रकट करता हुआ मनुष्य। वास्तव में मोक्ष के सभी प्रयत्न कहीं जाने या पहुंचने के नहीं है परंतु स्वयं की आत्मिक सत्ता को जानने और आत्मिक गुणों को प्रकटने के है। साम्प्रदायिक भ्रांति में डूबा हुआ मनुष्य मोक्ष-प्राप्ति के लिए सभी प्रयत्न वहाँ-वहाँ करता है जहाँ-जहाँ वह सम्भव ही नहीं है। भारतीय अध्यात्म परम्परा में मोक्ष-अनुभव के सन्निकट आने के लिए विविध धर्म-क्रियाओं की प्ररूपणा करी है परंतु यह सभी क्रियाएँ तभी सफल होती हैं जब क्रिया से क्रियातीत अनुभव प्रकटे, साकार से निराकार में क़दम उठे, जड़ शरीर से होता कर्म चेतन सत्ता की झांकी का निमित्त बने। परंतु भ्रांति में, आग्रहों में, हठ और स्वच्छंद में उलझा मनुष्य क्रिया को ही धर्म मानता है, साकार प्रतिमा को पूजना ही धर्म मानता है और जड़ शरीर की विविध चेष्टाओं को ही करते रहना मनुष्य जीवन की सफलता मानता है। परंतु यह मनुष्य जीवन की सफलता कदापि नहीं है। मनुष्य जीवन तो तभी सफल है जब ‘मैं कौन हूँ? कहाँ से आया? और क्या स्वरूप है मेरा?’ इन तीन मूलभूत प्रश्नों के समाधान अनुभवगम्य हो। इसी समाधान को खोजना मुमुक्षुता है और इस समाधान से समाधि को पाना ही मोक्ष है।

तीन मूलभूत प्रश्न

धर्म-जगत में दौड़ता-भागता मनुष्य हर प्रकार के प्रश्न पूछता है, शास्त्रों को उलटता है, उनके समाधान खोजता है परंतु यह तीन मूलभूत प्रश्न ही नहीं पूछता। मैं कौन हूँ? कहाँ से आया? और मेरा स्वरूप क्या? जब यह तीन प्रश्न मनुष्य-मन को घेरते हैं तो सत् की खोज में उसका पहला क़दम उठता है। इन तीन प्रश्नों के अभाव में मनुष्य द्वारा करी हुई सभी शुभ-क्रियाएँ या ज्ञान-चर्चा मात्र संसार भ्रमण की आय ही करता है। इन तीन मूलभूत प्रश्नों के समाधान की जिज्ञासा ही मनुष्य को मुमुक्षुता की प्रथम, मध्यम व उत्तम भूमिका से होते हुए आत्म-अनुभूति तक ले जाती है।

तीसरी भूमिका (उत्कृष्ट पात्रता)

श्रीमद् राजचंद्रजी द्वारा उपदेशित अंतिम-उपदेश नामक लघु काव्य में मुमुक्षुता की भूमिका के तीन पड़ाव अत्यंत स्पष्टता से उजागर किए हैं। अब, उत्कृष्ट भूमिका के लक्षणों का संकलन देते हुए श्री गुरु राज लिखते है कि –

नहीं तृष्णा जीने की हो, मरण योग नहीं क्षोभ।

महापात्र वो मार्ग के, परम योग जितलोभ।।

नहीं तृष्णा जीने की हो — उत्तम पात्रता के लक्षण स्पष्ट करते हुए यहाँ कहते है कि मुमुक्षु को जीने की तृष्णा का अभाव हो जाता है। स्वभावत: मनुष्य को जीने की तृष्णा (इच्छा) ही इसलिए होती है क्योंकि जीवन के प्रसंग उसमें सुख-अनुभव की आशा जगाते हैं। परंतु मुमुक्षु की इस उन्नत दशा में उसका सुख बाह्य प्रसंग से नहीं आ रहा परंतु अंतरंग स्वरूप की शुद्धता में से प्रवाहित हो रहा है। और जिसका सुख अपने भीतर से उठता हो, अकारण-अविलंब-असीम, वह फिर सुख की अनुभूति के कारण बाहर क्यों खोजे? जीवन की सभी आकांक्षाएँ सुख रूपी तृष्णा के गड्ढे को भरने के लिए है। लेकिन जब मुमुक्षु की इस महा-पात्रता में सुख के फ़व्वारे भीतर से उठते है तब जीवन जीने की सभी तृष्णा सहज ही गिर जाती है। यह मुमुक्षु जीवन-विरोधी नहीं है परंतु उसने जीवन का वास्तविक चैतन्य स्तोत्र जान लिया है इसलिए जड़ जीवन की आकांक्षा तिरोहित हो गयी है।

जिसका सुख अपने भीतर से उठता हो, अकारण-अविलंब-असीम, वह फिर सुख की अनुभूति के कारण बाहर क्यों खोजे?

मरण योग नहीं क्षोभ — ऐसे महापात्र मुमुक्षु की संज्ञाओं (आहार, भय आदि) का विसर्जन होता अनुभव में आता है। भय की अंत-हीन दिखती परम्परा अब व्यर्थ लगती है क्योंकि स्वयं के सत्-चित-आनंद स्वरूप में न जन्म होता है, न मृत्यु। सत् की अनुभूति में नित्यता का भान प्रगाढ़ होता है और इसलिय मरण तुल्य योग (उदय) में भी मुमुक्षु के भीतर किसी भी प्रकार के दुःख-पीड़ा-आकुलता नहीं होते। इस गुण की प्रत्यक्षता मुमुक्षु के जीवन में तब भी झलकती है जब उसका अति निकट व प्रिय संबंधी देह-त्याग करे परंतु मुमुक्षु का हृदय पीड़ा से व्यथित न होता हुआ अनित्यता के बोध से ही घिरता है।

परम योग जितलोभ — मुमुक्षुता की अत्यधिक गहन भूमिका में जहाँ एक ओर जीवन की तृष्णा व मृत्यु का भय गिरते हैं वहीं दूसरी ओर परम शाश्वत चैतन्य सत्ता के अनंत गुण उजागर होते हैं। मुमुक्षु की आनंद की आकांक्षा कहीं खोती नहीं है परंतु अपने वास्तविक स्तोत्र को खोज लेती है। यही परम योग की स्थिति है। परम यानी पूर्ण, एक, सनातन, शाश्वत स्थिति में खो जाना। यह आत्मानुभूति की दशा-सूचन है। मुमुक्षु यहीं इस जीवन में निज शुद्धता की अनुभूति करता है उसे ‘परम योग’ कहते है। इस परम योग की दिव्य धारा में जन्मोजन्म से संग्रहित क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों पर विजय प्राप्त होती है जिसे ‘जितलोभ’ शब्द के अंतर्गत समाया है। मुमुक्षु का जीवन आत्मिक आनंद की धारा में ओतप्रोत होता है जहाँ क्षण-क्षण में आत्मभाव प्रत्यक्ष होता है और कर्मभाव परोक्ष होता जाता है। स्वयं के सत्-चित्-आनंद स्वरूप का परम योग होते ही अब मुमुक्षु निज-धाम की कर्म-रहित स्थिति में सादि-अनंत काल तक स्थिर होने के लिए जीवन-व्यापन करता है। आ हा! धन्य यह दशा! धन्य धन्य यह जीवन!!

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