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गुरु कृपा — विज्ञान, मनोविज्ञान या वरदान

प्रश्न — अध्यात्म परंपरा में गुरु कृपा की महिमा सर्वोच्च कही गई है। कहते हैं कि गुरु की कृपा के बिन इस मार्ग की न तो समझ उघड़ती है , न ही रूचि प्रकटती है और न ही अनुभूति प्रज्जवलित होती है। यदि गुरु-कृपा का माहात्म्य इतना है और श्री गुरु करुणा के सागर हैं तो यह कृपा शिष्य पर आरंभ में ही क्यों नहीं कर देते? वर्षों की प्रतीक्षा और पुरुषार्थ के बाद ही गुरु-कृपा क्यों होती है?

समाधान : आवश्यकता है शब्दों के अर्थ की गहराई को समझने की और उसके बाद ही तात्पर्य और भावार्थ समझ में आ सकते हैं। ‘गुरु ‘ शब्द का संयोजन दो शब्दों से होता है:
‘ गु ‘ यानि अज्ञान रुपी अंधकार
‘ रु ‘ यानि दूर करने वाले
अर्थात् गुरु यानि जो हमारे अज्ञान रुपी अंधकार को दूर करते हैं। संसार के इस विषम चक्र में यदि तुम्हें कहीं कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो तुम्हारे निज-स्वरुप के प्रति रहे हुए अज्ञान को दूर करने में प्रयासरत हो तो वह तुम्हारे लिए ‘गुरु’ ही है। गुरु के समागम में शिष्य का अज्ञान दूर होता है परंतु गुरु के व्यक्तित्व के प्रति का विस्मय सदा प्रगाढ़ होता जाता है। तुम्हारी ही तरह दिखने वाला, खाने वाला, बोलने वाला, हँसने वाला व्यक्ति तुमसे कितना अधिक विरुद्ध है यह किसी गुरु की हाज़री में ही तुम महसूस कर पाते हो।

गुरु किसी व्यक्ति को नहीं कहते परंतु गुरु एक उपस्थिति का नाम है; जिनकी मौज़ूदगी में तुम्हें तुम्हारे अज्ञान का दुःख सताने लगे, अहंकार की जड़ें उखड़ने लगे और आसक्ति की पीड़ा कम होने लगे। जब अज्ञान-अहंकार-आसक्ति का त्रिविध ताप शांत होने लगता है उसी क्षण को शास्त्रों में ‘कृपा’ कहा गया है। कृपा शब्द ‘कृप’ धातु से आया है जिसका अर्थ होता है माया की पहचान। संपूर्ण जगत में द्वैत का राज्य छाया है यानि सुख-दुःख, हर्ष-शोक, अच्छा-बुरा, मेरा-तेरा की विविध भ्रांति से मनुष्य घिरा हुआ है। यह सुख-दुःख, मेरा-तेरा की मान्यताएँ अज्ञान से उठती हैं, अहंकार के कारण दृढ़ होती हैं और आसक्ति के कारण हमें सुखी-दुखी करती हैं।

परंतु जब गुरु की मौज़ूदगी में जगत पर रहा माया का पर्दा उठता है तो इस क्षण को ‘गुरु-कृपा’ कहते हैं। यह गुरु-कृपा किसी गुरु का व्यक्तिगत चुनाव नहीं है कि किसी साधक पर कृपा करे और किसी पर न करे। यह गुरु-कृपा तो गुरु की उपस्थिति में उनके अस्तित्व से बहती रहमत है जो यदि तुम्हारी पात्रता है तो उसमें भर दी जाती है।

यह तो प्रकृति का नियम है कि जब भी बादल वर्षा करते हैं तो पत्थर-चट्टानें-पर्वत खाली रह जाते हैं और गड्ढे-नदी-तालाब भर जाते हैं। इसी प्रकार श्री गुरु की उपस्थिति में तुम भी अज्ञात के रहस्यमयी अनुभवों से भर जाओगे यदि तुम में तुम्हारे अज्ञान के दर्द का गड्ढा गहरा हुआ हो। मनुष्य अपने अज्ञान-अहंकार-आसक्ति के दायरे में स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है परंतु श्री गुरु का समागम ही उसमें यह बोध जगाता है कि जीवन के सभी सुख-दुःख, दर्द-पीड़ा इसी अज्ञान में से जन्म ले रहे हैं।

गुरु कृपा — वैज्ञानिक है

चूँकि श्री गुरु व्यक्तित्व के संकुचित दायरे में कैद नहीं होते परंतु अनंत की उपस्थिति का प्रत्यक्ष प्रमाण होते हैं तो उनकी इसी उपस्थिति में तुम्हें जो कुछ भी महसूस होता है वह कारण-कार्य सिद्धांत पर ही आधारित होता है। सभी के लिए ‘कारण’ तो एक समान ही है — श्री गुरु की उपस्थिति परंतु ‘कार्य’ सभी की अपनी मौलिक पात्रता के आधार पर होता है।

जैसे घर में बिजली की तारों में करंट तो एक समान दौडता है परंतु बल्ब की जितनी क्षमता होगी उतनी ही रोशनी देने में वह सक्षम होता है। उसी प्रकार श्री गुरु की उपस्थिति में तुम भी उतना ही माया का पर्दा उठा सकते हो जितनी तुम्हारी आंतरिक योग्यता होगी — इसी को ‘गुरु-कृपा’ कहते हैं।

गुरु कृपा — मन का मनोविज्ञान

अध्यात्म की संपूर्ण यात्रा मन को मारने की नहीं, परंतु मन के पार जाने की है। स्वाभाविक है कि मन का साम्राज्य हमारे लिए परिचित है और परिचित में सदा सुरक्षा महसूस होती है। परंतु मन के पार का साम्राज्य अपरिचित है और तभी वहाँ यात्रा करने में, छलाँग लगाने में असुरक्षा का दृढ़ अनुभव होता है। ऐसी स्थिति में श्री गुरु का परिचय, उनके वचन में विश्वास और हृदय में प्रेम-श्रद्धा-अर्पणता के भाव शिष्य में साहस उठाते हैं — अज्ञात में कदम उठाने का। शिष्य के मन को तरंगित करते यह भाव ज्यों-ज्यों उसे स्वरुप की पहचान कराते हैं त्यों-त्यों माया का पर्दा उठता है और इसी को कहते हैं — ‘गुरु-कृपा’।

गुरु कृपा — विधाता का वरदान है

गुरु कृपा यानि ऐसे अस्तित्व की उपस्थिति जिनकी मौज़ूदगी में अज्ञान रुपी अंधकार दूर होता है और परिणाम स्वरुप माया का पर्दा उठता है। यह दो अलग-अलग घटनाएँ नहीं है परंतु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जैसे-जैसे अज्ञान रुपी अंधकार घटता है वैसे-वैसे ही जगत पर पड़ा माया का पर्दा उठता है। चूँकि यह दोनों ही घटना किसी की मौज़ूदगी (शारीरिक, मानसिक या शाब्दिक) में ही घटती हैं तो उस अस्तित्व की उपस्थिति शिष्य के जीवन में विधाता का वरदान ही है। श्री गुरु को कभी भी, कोई भी शिष्य स्वयं के पुरुषार्थ से खोज नहीं सकता, पा नहीं सकता। परंतु जब किसी सदगुरु के हृदय में रहा करुणा का सागर उछलता है तो किनारे पर प्रतीक्षा कर रहे मनुष्यों को भींजा लेता है। अज्ञात सागर को नापने का साहस अचानक ही उमड़ आता है जब श्री गुरु का शार्दूल-नाद प्रेम पूर्ण आमंत्रण दे जाता है।

जिस विधाता ने माया को रचा उसी विधाता का स्वरुप श्री सदगुरु के अनुभवगम्य है। जीवन में किसी ऐसे प्रत्यक्ष स्वरुप की उपस्थिति पाना तुम्हारे प्रयास या पुरुषार्थ से असंभव होता है परंतु यह मात्र ईश्वर का वरदान है जो गुरु कृपा के रहस्यात्मक रूप में बह रहा है…

गुरु-कृपा यानि अज्ञात को पाने की तैयारी और तत्परता से भरे हृदय में अज्ञात का आ जाना, समा जाना !

गुरु-कृपा यानि संसार की तरफ भागते चित्त को स्वयं के स्वरुप के प्रति के होश से भर देना, सघन कर देना !

गुरु-कृपा यानि शिष्य के प्रेम-श्रद्धा-अर्पणता की ऐसी भूमिका जहाँ माया का पर्दा उठ जाए, अज्ञान की परतें गिर जाए !

ऐसी गुरु-कृपा के प्रत्यक्ष कारण इस कलिकाल में भी प्रत्यक्ष सदगुरु के रूप में विद्यमान है। आवश्यकता है तुम्हारे शिष्य होने की और तब विज्ञान,मनोविज्ञान और वरदान की त्रिवेणी तुम्हारे जीवन में एक शाश्वत पहचान को उजागर करेगी।

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2 Comments

  1. Jai Krupalu Prabhu
    About the Thoughtless process answer,
    When you said Sansar thought transform in to Parmarth . But what happened is now.mind create illusion that I’m changing and gives signal I’m not thinking about Sansar. But someone inside ( Heart) says this is cheating. This is forceful action. Your mind is convincing you that you have change. So what to do ?
    I hope Prabhu, I am able to put my question right way.

  2. मेरा आपसे एक प्रश्न है प्रभु की अगर आप कहते हो की ईश्वर की इच्छा में खुश रहना चाहिए तो क्या visualizatin करके हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए या कभी कभी unavoidable situation में सांसारिक समस्याओं के लिए कुछ create करना या उसका प्रयास करना गलत है?

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