Shrimad Rajchandra

शिक्षापाठ 27: यत्ना (प्रयत्न) (Mokshmala)

Mokshmala

जैसे विवेक धर्म का मूल तत्त्व है, वैसे ही यत्ना धर्म का उपतत्त्व है। विवेक से धर्मतत्त्व को ग्रहण किया जाता है और यत्ना से वह तत्त्व शुद्ध रखा जा सकता है, उसके अनुसार आचरण किया जा सकता है। पाँच समितिरूप यत्ना तो बहुत श्रेष्ठ हैं; परंतु गृहस्थ आश्रमी से वह सर्व भाव से पाली नहीं जा सकती।  फिर भी जितने भावांश में पाली जा सके, उतने भावांश में भी सावधानी से वे पाल नहीं सकते। जिनेश्वर भगवान द्वारा बोधित स्थूल और सूक्ष्म दया के प्रति जहाँ बेपरवाही है वहाँ इसे बहुत दोष से देखा जाता है। इसका कारण यत्ना की न्यूनता है। उतावली और वेग भरी चाल, पानी छान कर उसकी जीवाणी रखने की अपूर्ण विधि, काष्ठादि ईंधन का बिना झाड़े, बिना देखे उपयोग, अनाज में रहे हुए सूक्ष्म जंतुओं की अपूर्ण देखभाल, पोंछे-माँजे बिना रहने दिए हुए बरतन, अस्वच्छ रखे हुए कमरे, आँगन में पानी का गिराना, जूठन का रख छोड़ना, पटरे के बिना खूब गरम थाली का नीचे रखना। इनसे अपने को अस्वच्छता, असुविधा, अनारोग्य इत्यादि फल मिलते हैं और यह महापाप के कारण भी हो जाते हैं। इसलिये कहने का आशय यह है कि चलने में, बैठने में, उठने में, जीमने (भोजन करने) में और दूसरी प्रत्येक क्रिया में यत्ना का उपयोग करना चाहिये। इससे द्रव्य एवं भाव दोनों प्रकार से लाभ है। चाल धीमी और गंभीर रखनी, घर स्वच्छ रखना, पानी विधि सहित छनवाना, काष्ठादि ईंधन झाड़ कर डालना, ये कुछ हमारे लिए असुविधाजनक कार्य नहीं हैं, और इनमें विशेष वक्त भी नहीं जाता। ऐसे नियम दाखिल कर देने के बाद पालने मुश्किल नहीं हैं। इनसे बेचारे असंख्यात निरपराध जन्तु बचते हैं।

प्रत्येक कार्य यत्नापूर्वक ही करना, यह विवेकी श्रावक का कर्तव्य है।


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