धर्म जगत का मूल बिंदु है — निष्काम बनो। शास्त्रों के प्रत्येक सूत्र कामना छोड़ो, इच्छा छोड़ो, चाहत छोड़ो से भरे पड़े हैं। लेकिन मनुष्य का यह सार्वजनिक अनुभव है कि कामना, चाहत, इच्छा को छोड़ पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। फिर जीवन का अनुभव भी कुछ ऐसा है कि जहाँ जहाँ इच्छा पूर्ति होती है वहीं वहीं ख़ुशी का अनुभव होता है। तो क्या सम्पूर्ण धर्म जगत सुख-विरोधी होने की बात कर रहा है? तो क्या सभी शास्त्र ख़ुशी-विहीन जीवन जीना की प्रेरणा दे रहे हैं?
नहीं, धर्म आनंद विरोधी नहीं है। जब धर्म की मंज़िल ही परम आनंद है तो हर क़दम पर सुख, ख़ुशी, सम्पन्नता की अनुभूति होना ही यथार्थ मार्ग है। परंतु धर्म सूत्रों को ठीक से नहीं समझ पाने के कारण आज का वर्ग या तो धर्म से विमुख होता जा रहा है या फिर धार्मिकता की आड़ में अप्रगतिशील रह रहा है। दोनों ही हालात में मनुष्य प्रसन्न तो नहीं ही है।
विश्व को देखने के दो दृष्टिकोण
निष्कामता को समझने के लिए सबसे पहले समझते हैं कि कामना क्या होती है? सम्पूर्ण विश्व दो प्रकार के दृष्टिकोण से देखा जा सकता है। प्रथम — सब कुछ सदा परिवर्तनशील है। यहाँ हर अवस्था सतत बदलती जा रही है। कुछ भी स्थिर नहीं, कुछ भी सदाकाल के लिए वैसे का वैसा बना नहीं रहता। जन्म से मृत्यु तक का सफ़र, नए से पुराने तक का सफ़र और मेरे से तेरे तक का सफ़र सब कुछ परिवर्तन के जाल में ही बुना हुआ है। दूसरा — यह परिवर्तनशील जगत किसी अपरिवर्तशील सत्ता के आधार पर चल रहा है जो सदा मौजूद थी, मौजूद है और मौजूद रहेगी। इसी नित्य स्थित सत्ता को हम ‘ईश्वर’ कहते हैं।
कामना क्या?
जन्म से मृत्यु तक के सफ़र में जो बदलते हैं वह शरीर, मन व बुद्धि होते हैं पर इन सब बदलती अवस्थाओं को जानने वाला सदा एक ही होता है क्योंकि बदलावों को जानने वाला यदि स्वयं ही बदल जाए तो इन अवस्थाओं के बदलने का ज्ञान उसे कभी भी नहीं हो सकता। इसी प्रकार किसी वस्तु के नए से पुराने होने तक के सफ़र में वस्तु की अवस्था बदलती है परंतु उसका मूल द्रव्य कभी नहीं बदलता। लकड़ी की कुर्सी नए से पुरानी होती है तो अवस्था बदलती है परंतु लकड़ी बदल कर कुछ और नहीं हो जाती। इसी प्रकार ‘मेरे पास से तेरे पास’ तक के सफ़र में वस्तु या व्यक्ति मेरे पास से पसार हो कर दूसरे के पास चली जाती है परंतु वस्तु की सत्ता तो सदा ही बनी रहती है।
इससे यह सुनिश्चित होता है कि इस संपूर्ण जगत में अनित्य और नित्य, परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील, क्षणिक और शाश्वत दोनों सदा ही विद्यमान हैं। अब मूल विषय पर आते हुए समझते हैं कि कामना क्या है? जीवन में क्षणिक, परिवर्तनशील, अनित्य संयोगों से सदाकाल के सुख की अपेक्षा रखना इसी को कामना कहते हैं। बदल रहे शरीर से सदा स्वास्थ्य की अपेक्षा रखना कामना है। बदल रहे मन से सदा प्रसन्न रहने की इच्छा रखना कामना है। बदल रहे सम्बन्धों से सदा एक जैसे स्नेह की आशा रखना कामना है। शरीर निरोगी रहे, मन प्रसन्न रहे और सम्बन्धों में सदा ही सद्भाव बना रहे इसका प्रयास अवश्य करना है परंतु वे हमारी इच्छा अनुसार ही बने रह कर हमें सुख दे- इस विचार श्रेणी को कामना कहते हैं। और हर धर्म इस प्रकार की कामना से आज़ाद होने को मनुष्य से कह रहे हैं। इस प्रकार की आज़ादी से मनुष्य को बदलते जगत में रहते हुए भी सुख का ही अनुभव होता रहेगा।
निष्कामता क्या?
स्वाभाविक लगेगा कि जो कामना की परिभाषा से विपरीत है वही निष्कामता होगी। यानि — जीवन में क्षणिक, परिवर्तनशील, अनित्य संयोगों से सदाकाल सुख की अपेक्षा नहीं करना इसी को निष्कामता कहते होंगे। हाँ, परंतु यह अधूरी परिभाषा है। और इसी समझ का अनुशरण कर के धर्म जगत का मनुष्य सुख-विरोधी होता जा रहा है। उसके चेहरे पर प्रसन्नता नहीं, हृदय में नाच नहीं और कुछ कर पाने का उमंग नहीं। निष्कामता में जहाँ एक ओर परिवर्तनशील से सुखी होने की इच्छा को गिराना है वहीं दूसरी ओर अपरिवर्तनशील से सुखी होने की चाहत को प्रगाढ़ करना है। जो हमारा स्वरूप है, जो सदा से हमारे साथ था, है ओर रहेगा उस सत्ता से सुखी होने के ढंग खोजना भी निष्कामता है और यही धर्म का मार्ग है।
भूल कहाँ है?
निष्कामता के सूत्रों को पूरी तरह से नहीं समझ पाने के कारण मनुष्य दृश्य जगत से तो सुख की इच्छा को वापिस खींचने की कोशिश करता है परंतु वह सुख कहीं और से नहीं आने के कारण उसका जीवन मायूसी और उदासी से भरा हुआ रहता है। इस जगत में सुख नहीं है ऐसा हम नहीं कहते परंतु हम कह रहे हैं कि क्षणिक में सुख नहीं है परंतु शाश्वत में है। शाश्वत की इस खोज में निकलने के पहले ही क़दम में शांति है, सुख है और अंतिम क़दम पर परम आनंद है। मनुष्य की भूल ही यही है कि वह क्षणिक को तो छोड़ने का प्रयास कर रहा है परंतु सुख प्राप्ति के अभाव में न तो क्षणिक छूटता है और न ही शाश्वत की कोई ख़बर मिलती है।
कामना और निष्कामता के स्वरूप को समझ कर जब मनुष्य जीवन जीता है तभी अपने परम उद्देश्य को, सत्-चित्त-आनंद स्वरूप को अनुभव करने की यात्रा का आरम्भ हो सकता है। संसार का निरोध कर उससे संबंध विच्छेद करके मनुष्य संसार भर में व्याप्त ईश्वर का अनुभव नहीं कर सकता। यह एक युक्ति है जो श्री गुरूगम से समझ में आती है और क्षणिक के बीच रह कर भी शाश्वत की ओर क़दम सरक जाते है।