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अनेकांतवाद

जैन धर्म की प्रमुखता
Lord Mahaveer — The One who flows with every colour

विश्व में प्रचलित हर धर्म की अपनी कोई विशेषता है, प्रमुखता है। यही प्रमुखता उस धर्म के अनुयायी को जीवन के परम उद्देश्य से जोड़ने का कार्य कर सकती है। परंतु मनुष्य धर्म-संप्रदाय की छोटी-छोटी बातों और क्रिया-काण्ड में ऐसा उलझ गया है कि प्रमुख सिद्धांतों की गहन विचारणा ही नहीं करता और धर्म के परम सत्य से कोसों दूर रहता है।

अनेकांतवाद (Non-Absolutism) क्या है?

जब वस्तु के पूर्ण स्वरूप को समझने के लिए अनेक दृष्टिकोण का उपयोग कर के वस्तु का स्वीकार किया जाए तो उस शैली को अनेकांतवाद कहते हैं। वस्तु का स्वरूप इतना विस्तृत व गहन है कि किसी एक वाक्य में उसे सम्पूर्ण रूप से समझाया नहीं जा सकता। इसलिए जैन धर्म के अंतर्गत सभी दृष्टिकोणों को न्यायपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है। अनेकांतवाद का संधि विच्छेद करने से उसका अर्थ सहज ही स्पष्ट हो जाता है। अन+एक+अंत+वाद यानि अंत को समझाने के लिए कोई एक वाद समर्थ नहीं है। अनेकांतवाद की प्ररूपणा का काल अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के समय से माना जाता है। परंतु आठवीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्रसूरिश्वर जी ने अनेकांत शैली को सामान्य मनुष्य समझ सके उस प्रकार से आलेखित किया।

अनेकांतवाद — अन्य दर्शनों की अपेक्षा से

वस्तु की सत्ता को अलग अलग अनेक अपेक्षाओं से समझा जा सकता है। वस्तु की ‘नित्य’ सत्ता को प्रमुख करके हिंदू धर्म के सिद्धांतों का आरोपण हुआ तो वस्तु के ‘परिवर्तनशील’ स्वभाव को मुख्य कर के बौद्ध धर्म के सिद्धांत प्ररूपित हुए। यह दोनों सिद्धांत — नित्य व परिवर्तनशील, परस्पर विरोधी दिखते हुए भी एक ही समय में वस्तु में मौज़ूद है। जैन धर्म में दोनों सिद्धांतों को एक साथ स्वीकृत किया है। यह इसकी विराट दृष्टि का प्रतीक है।

अनेकांतवाद — उलझन कहाँ?

परस्पर विरोधी सिद्धांतों का उपयोग जब एक साथ होता है तो यह अति आवश्यक है कि किस स्थान पर कौन से सिद्धांत का उपयोग करना है। यदि विपरीत सिद्धांत से वस्तु को देखने की कोशिश होगी तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है। जैसे — एक स्त्री किसी की पत्नी है और साथ साथ किसी की माँ भी है। ऐसे में पति को उस स्त्री में पत्नी देखनी है, माँ नहीं और पुत्र को उसी स्त्री में माँ देखनी है, पत्नी नहीं। यदि देखने के सिद्धांत में चूक हो जाए तो पूरी व्यवस्था ही बिगाड़ जाती है।

अनेकांतवाद — कथन के दो प्रमुख ढंग

अनेकांत शैली को प्रस्तुत करने के लिए जैन आचार्यों ने दो प्रमुख ढंग का उपयोग किया — स्यादवाद (conditioned viewpoint)और नयवाद (partial viewpoint)। स्यादवाद यानि वस्तु के गुण को समझने, समझाने और अभिव्यक्त करने का सापेक्ष ढंग। और नयवाद अर्थात् वस्तु के गुण को समझने, समझाने और अभिव्यक्त करने का आंशिक व पक्षपात पूर्वक का ढंग। स्यादवाद के अंतर्गत सप्तभंगी का समावेश है और सात के पश्चात् अन्य कोई अपेक्षा सम्भव ही नहीं है। नयवाद में प्रमुख दो नय है, जिनका विस्तार फिर सात नय में होता है और तत् पश्चात् भी अनेक नयों की संभावना बनी ही रहती है।

अनेकांतवाद — राग द्वेष मुक्त होने का अचूक उपाय

अनेकांतवाद अपने में अत्यंत गहन विषय है। प्रारंभिक भूमिका के साधक को इसके अभ्यास में कठिनता हो सकती है परंतु जब अनेकांतवाद के सिद्धांत स्पष्ट रूप से समझ में आ जाते हैं तो साधक किसी भी दर्शन की कोई भी अपेक्षा को अत्यंत सरलता से समझ सकता है। अनेकांत दृष्टि को समग्र और सम्पूर्ण रूप से समझने पर प्रत्येक धर्म व उसकी मान्यताओं का स्वीकार करना सहज हो जाता है और हर धर्म के प्रति आदर का भाव प्रकट होता है। धर्म के क्षेत्र में केवल विविध दर्शन को समझने और उसका सम्मान करने मात्र का लक्ष्य नहीं होता परंतु राग-द्वेष रहित हो कर परिभ्रमण से मुक्त होने का लक्ष्य होता है। अनेकांतवाद को समझ कर ही वास्तव में साधक राग-द्वेष की मंदता करते हुए उनसे मुक्त हो जाता है।

उदाहरण के माध्यम से अनेकांतवाद की कुछ स्पष्टता

जीवन में जब भी हमें कोई धोखा दे जाता है तो हमारा चित्त दुःख, दुर्भावना और द्वेष से भर जाता है। ऐसे में यदि हमें अनेकांतवाद के सिद्धांतों का यथार्थ ज्ञान होगा तो यह खेद, दुःख आदि का भाव मंद होगा। अनेकांत दृष्टि को समझने वाला नयवाद के दृष्टिकोण से समझता है कि जो धोखा, फ़रेब हुआ है वह अनित्य, सांसारिक, परिवर्तनशील सत्ता में हुआ है और इस धोखे से जो नित्य सत्ता है उसमें कुछ भी नुक़सान नहीं होता। तो जो बदलने ही वाला है उसमें से यदि किसी ने कुछ ले लिया तो खेद क्यों, द्वेष क्यों? इस प्रकार नयवाद शैली से चिंतन करते हुए द्वेष-मुक्ति का मार्ग उघड़ कर आता है। दूसरी ओर स्यादवाद की अपेक्षा को समझते हुए साधक विचार करता है कि जो धोखा किसी ने दिया है तो मात्र सम्पत्ति का नुक़सान हुआ है, किसी की जान का नुक़सान नहीं हुआ। यदि यही धोखा कुछ वर्षों बाद देता तो नुक़सान काफ़ी अधिक मात्रा में हो सकता था। इस प्रकार द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की सापेक्षता के आधार पर मन में रहे दुःख को घटाया जा सकता है जिससे द्वेष भी क्षीण हो जाता है।

अनेकांतवाद के अंतर्गत नय और स्यादवाद के आधार पर जब जीवन की क्रिया व प्रतिक्रिया होती है तब यही विचार शैली काल-क्रम से जीवन में स्वीकार भाव और राग-द्वेष की मंदता लाते हुए परिभ्रमण से मुक्त होने का अचूक उपाय है।

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