SpiritualitySri Guru's Notes

अवलोकन — कैसे करें?

आंतरिक यात्रा का प्रथम क़दम

अध्यात्म यात्रा में अवलोकन का स्थान ऐसा है जैसा कि किसी विशाल भवन के निर्माण में नींव को रखने का होता है। यदि नींव कमज़ोर हो तो भवन चाहे देखने में कितना भी सुंदर हो परंतु उसकी सुदृढ़ता के अभाव में असुरक्षा का भाव सदा बना रहता है। इसी प्रकार अध्यात्म की इस अंतरंग यात्रा में यदि अवलोकन का गहनतम कार्य नहीं हुआ है तो कितने भी दिव्य अनुभव क्यों न होते हो, परंतु भीतर से निर्भयता व समग्र सुरक्षा का अहसास असम्भव ही होता है।

अवलोकन — इस शब्द से तो हम सभी परिचित हैं परंतु शब्द से परिचित होने का अर्थ यह नहीं होता कि हम उसके भाव को संपूर्ण रूप से समझते हों। भाव को समझने के लिए शब्दों की अर्थ गंभीरता को समझ कर उसे जीवन में उतारना होगा। जब ये शब्द जीवन में उतरते हैं तभी उनके रहस्य का अनुभव होता है जो हमारे में उनके भाव को स्पष्ट करता है। अवलोकन का सामान्य अर्थ होता है — देखना, निरीक्षण करना लेकिन अध्यात्म जगत में अवलोकन का अर्थ हो जाता है अपने भीतर देखना; अपने भावों-विचारों का सूक्ष्म निरीक्षण करना।

अवलोकन कब करना चाहिए?

अवलोकन की मूलभूत आवश्यकता तभी उठती है जब कभी हम भीतर से उदास हो, व्याकुल हो, दुखी हो और अपने इस दुःख का कारण किसी भी बाहरी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति पर डालते हो। यही वह क्षण है जहाँ से हम अवलोकन की यात्रा का आरम्भ कर सकते हैं और अपनी उदासी का उपयोग, उदासीन होने के लिए कर सकते हैं। अवलोकन यदि यथार्थ रूप से हुआ हो तो दुःख के क्षण भी सुखद अनुभव में रूपांतरित हो जाते हैं; व्याकुलता के पल निराकुलता में खो जाते हैं।

अवलोकन क्यों करना चाहिए?

इस विश्व में विचरते सभी मनुष्य जागृत तो है परंतु बाहरी जगत के प्रति और इसलिए ही वहाँ पर फेरफ़ार करने की सदा कोशिश करते रहते हैं। यदि मनुष्य की यह कोशिश सफ़ल हो जाती है तो वह सुखी हो जाता है और यदि यह कोशिश नाकामयाब होती है तो वह दुखी हो जाता है। सुख-दुःख की इसी उलझन से मनुष्य को बाहर लाने का समग्र मार्ग ‘अध्यात्म मार्ग’ कहलाता है। और इसी अध्यात्म मार्ग का प्रथम चरण है — अवलोकन।

अवलोकन यानि भीतर अपने विचारों को देखना। इससे हममें आंतरिक जागृति आती है। जो मन सदा ही दूसरों के बारे में सोचता है वह मन अवलोकन के माध्यम से अपनी सोच को देखता है। जब हम अपनी सोच को देखते हैं तो उसमें हो रही हमारी भूल हमें नज़र आती है। प्रकृति का यह नियम है कि जहाँ भी उसे भूल दिखेगी वहीं से सुधार का कार्य आरम्भ हो जाएगा। और जब हमारे भीतर आंतरिक सुधार होगा तभी हमें हममें रहे अनंत ईश्वर के प्रवाह का भान प्रकट होगा।

संक्षेप में, अवलोकन की प्रक्रिया कुछ इस प्रकार से हमारा आत्मा विकास करती है –
१] अवलोकन करने से आंतरिक जागृति आती है,
२] आंतरिक जागृति से अंतर सुधार होता है,
३] अंतर सुधार से भीतर रहे ईश्वर का भान प्रकट होता है।

अवलोकन में भीतर क्या दिखता है?

अध्यात्म जगत में यह सिद्धांत है कि दुःख व सुख दोनों का कारण मनुष्य के भीतर है, बाहर नहीं। बाहरी कोई भी वस्तु-व्यक्ति-स्थिति हमें न ही सुखी कर सकती है, न ही दुखी। तो प्रश्न यही होता है कि हम सुखी-दुखी किस कारण से होते हैं? अवलोकन हमें यही कारण खोजने में मदद करता है।अवलोकन कर के हमें दुःख के तीन कारण समझ में आते हैं –

१. दोष की उपस्थिति — किसी भी समय में कुछ भी ग़लत करना या करने का भाव होना इसे दोष कहते हैं। जैसे — अपना रखा हुआ कोई समान जब हमें नहीं मिलता तो हम शीघ्र ही किसी पर शंका करने लग जाते हैं बिना किसी सबूत के। यह शंका का भाव ही दोष कहलाता है। इसी प्रकार झूठ बोलना या बोलने का भाव करना, कपट करना या कपट का भाव होना इत्यादि सभी कुछ दोष ही कहलाता है। हमारे दोष की ख़बर दूसरों को हो या न हो परंतु इसके परिणाम में कर्म-सत्ता से हमें दुःख का अनुभव अवश्य होता है।

२. अपराध की प्रवृत्ति — किसी भी प्रशासन, समाज या संप्रदाय द्वारा बनाए गए क़ायदे-क़ानून के विरुद्ध कार्य करना अपराध कहलाता है। जैसे — ट्रैफ़िक नियम के अंतर्गत लाल बत्ती पर गाड़ी को न रोकना अपराध है जिसके परिणाम स्वरूप हमें कोई-न-कोई दुःख की अनुभूति होती है। इस दुःख का अनुभव तत् क्षण न भी हो परंतु अपराध के परिणाम में दुःख जमा अवश्य होता है जो काल क्रम से हमें अनुभव में आता है। SRM में कुछ एक साधक स्वराज क्रिया को लेने के उपरांत उसे नहीं करते — यह भी अपराध है जिसका परिणाम दुःख ही होता है।

३. पाप मग्नता — कोई भी कार्य जब इस प्रकार से किया या कहा जाता है जिससे किसी भी जीव को दुःख की अनुभूति हो तो ऐसे कार्य को पाप कहते हैं। इसके परिणाम स्वरूप तीव्र दुःख का वेदन भोगना पड़ता है। जैसे — कुछ इस प्रकार के कठोर वचन किसी से कहना जिससे उस व्यक्ति को अत्यंत कष्ट पहुँचे, दिल दहल जाए अथवा किसी की सम्पत्ति हड़प करके उस जीव को अत्यंत दुःख पहुँचाया हो — इस प्रकार के कृत्यों से पाप कर्म संग्रहित होता है जो परिणाम स्वरूप दुःख की अनुभूति कराता है।

दोष-अपराध-पाप से मुक्त कैसे हों?

मनुष्य चाहे जानबूझ कर दोष-अपराध-पाप करे या फिर अनजाने करता हो परंतु उसकी कर्म सत्ता में वह जमा होकर उसको दुःख का अनुभव ज़रूर कराते हैं। जीवन में यह दुःख का अनुभव आता ही इसलिए है ताकि हम अपने भीतर रहे दोष-अपराध-पाप को समझ कर सर्वव्यापक ईश्वर से उसकी क्षमा माँग सकें। क्षमापना के अंतर्मुख प्रयोग से हम बेहोशी में हुए दोष-अपराध-पाप से स्वयं को आज़ाद करते हैं और दुःख से मुक्त होते हैं। अध्यात्म मार्ग यानि अनंत व शाश्वत सुख के मार्ग पर प्रथम क़दम पर ही दुःख से मुक्ति है और इसी प्रथम क़दम को अवलोकन कहते हैं।

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