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मनुष्य मन — अनंत संभावनाओं की परतें

Artwork dedicated by Saksham Jain | © Shrimad Rajchandra Mission, Delhi
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इस पृथ्वी पर मौज़ूद सभी जातियों में सर्वाधिक विशिष्ट जाति मनुष्य की मानी जाती है। यह विशिष्टता मनुष्य के दो हाथ, दो पैर, चेहरे आदि शारीरिक उपलब्धि के कारण नहीं है परंतु यह विशेषता मनुष्य के मन की है, मस्तिष्क की है — जिसमें अनंत के रहस्य को जान पाने की अगम्य और अदम्य शक्ति है।

मनुष्य का मन और मस्तिष्क

सामान्यतः हम मन और मस्तिष्क को एक ही मानते हैं और उनके अलग-अलग स्वभाव से परिचित नहीं होने के कारण उनकी शक्ति व कार्य-प्रणाली से अनजान हैं। मनुष्य का मन (Mind) और मस्तिष्क (Brain) तदन भिन्न होते हुए भी एक दूसरे के साथ सांमजस्य-पूर्वक कार्य करते हैं। यदि मनुष्य इनके एकत्व और भिन्नत्व रूप प्रकार्य को समझ जाए तो अनंत संभावनाओं के उघड़ने का द्वार स्वयं ही खुल जाता है अन्यथा मन व मस्तिष्क की गहन उलझन में मनुष्य जीवन का यह सुअवसर भी सरक जाता है।

मन व मस्तिष्क के बुनियादी भेद :

अध्यात्म मार्ग — मस्तिष्क नहीं, मन का उपचार

मनुष्य के मस्तिष्क व मन के बुनियादी भेद को समझ कर ही आत्म निष्ठ श्री गुरु मनुष्य के मन के स्तर पर उपचार करते हैं और उस उपचार में मनुष्य का मस्तिष्क तर्क-संगत और भावना-युक्त हो कर सहयोग करता है और तब मन-मस्तिष्क की इस जुगलबंदी से ही ब्रह्म की अनंतता में प्रवेश कर पाना संभव हो पाता है।

मनुष्य मन — संभावनाओं की गहरी परतें

मन की सात-सतहों को उपनिषदों ने ‘सूरज के सात घोड़े’ की उपमा दे कर गाया है। हमारे महर्षियों द्वारा प्रस्तावित मन की इन गहरी सतहों में पहली सतह मनुष्य को बाहरी जगत से जोड़ती है तो अंतिम सतह मनुष्य को उसके भीतर रहे ईश्वरत्व से जोड़ती है। इन परतों की सामान्य समझ कुछ इस प्रकार से समझाई जा सकती है।

पहली परत : चेतन मन (Conscious Mind)

मनुष्य के मस्तिष्क द्वारा किया हर विचार, निर्णय, चुनाव आदि में चेतन मन का सहयोग होता है। वर्तमान क्षण का हर कार्य-विचार-भाव चेतन मन की शक्ति से ही संभव होता है।

दूसरी परत : अवचेतन मन (Subconscious Mind)

वर्तमान क्षण में हुए विचार, इस क्षण के बीत जाने पर अवचेतन मन में संग्रहित हो जाते हैं। उदाहरण के लिए यदि किसी ने हमें धोखा दिया तो उसकी प्रतिक्रिया तो वर्तमान में होगी परंतु तत् पश्चात चूँकि हम दूसरे कार्यों में लग जाते हैं तो वह भाव (प्रतिक्रिया के) हमारे अवचेतन मन में संग्रहित हो जाते हैं।

तीसरी परत : अचेतन मन (Unconscious Mind)

जब किसी के प्रति करी हुई प्रतिक्रिया को हम बार बार वचन से दोहराते हैं, दूसरों से कहते रहते हैं या मनोमन उसके विषय में क्रोध-दुख आदि का वेदन करते रहते हैं तो यह भाव हमारे अचेतन मन में संग्रहित हो जाते हैं। यहाँ संग्रहित भावों का गुण धर्म अब बदल जाता है तो क्रोध-दुख आदि के भाव द्वेष में रूपांतरित हो जाते हैं और वासना-चाहत-स्नेह आदि के भाव राग में रूपांतरित हो जाते हैं।

चौथी परत : भव्य चेतन मन (Super Conscious Mind)

जब भी बालक पैदा होता है तो इस भव्य चेतन मन की विस्तृत अवस्था में ही जन्म लेता है। यहाँ की संपूर्ण चेतना प्रेममयी होती है और इसलिए बालक प्रेम की भाषा समझता है। उसके जीवन के लिए जो आधारभूत होता है उसकी उसे चाहत होती है और उस आधार के नहीं मिलने पर मन में पूर्व से संग्रहित क्रोध आदि के संस्कार उछलते हैं जो पुनः चेतन, अवचेतन और अचेतन मन पर छाया-चित्र (Blue Print) छोड़ जाते हैं। इस प्रकार से इस जीवन में भी यह सिलसिला आरंभ हो जाता है।

पांचवी परत : सामूहिक चेतन मन (Collective Conscious Mind)

इस परत में मनुष्य के जन्मोंजनम के संस्कारों के छाया-चित्र अंकित होते हैं इन संस्कारों के सम-गुणवत्ता के छाया-चित्र मनुष्य के मेरुदंड में स्थित अलग अलग चक्रों के आस पास बन जाते हैं। जब योगिक साधना (स्वराज क्रिया आदि) से इन चक्रों को सशक्त व सक्रिय किया जाता है तो इन संस्कारों की गहनता कम होने लगती है। इस प्रकार से हमारा सामूहिक चेतन मन जागृत होता है जो मन की और अधिक गहरी परतों से सम्बन्ध बनाने में सक्षम होता है।

मनुष्य का सामूहिक चेतन मन किसी प्रत्यक्ष सदगुरु की दिव्य उपस्थिति में भी जागृत होता है जो मन की गहरी परतों को भेद कर अनंत के रहस्यों का अनुभव करने में सक्षम बनता है।

छठी परत : स्वाभाविक मन (Spontaneous Mind)

स्वाभाविक मन को ही हृदय कहा जाता है। मनुष्य के भीतर जब यह सतह जागृत होती है तो ‘हृदय का निर्माण हुआ’ – ऐसा अध्यात्म में कहा जाता है। निष्काम कर्म और विवेक की पृष्ठभूमि पर ही अध्यात्म-हृदय का निर्माण होता है जो मन की अंतिम परत को जानने में सक्षम होता है।

सातवीं परत : परम मन (Ultimate Mind)

मन की इस अंतिम परत परम मन को ही आत्मज्ञानी मनीषियों ने ‘आत्मा’ कहा है। आत्मा की शुद्धतम अवस्था जो स्वयं ही ईश्वर है उसका अनुभव परम मन में होता है। साधना-पथ का अंतिम लक्ष्य ही स्वयं में रहे ईश्वरत्व का अनुभव करना है।

मन की गहन परतों में यात्रा — देह से देहातीत अवस्था में प्रवेश

मनुष्य के इस जीवन की सफलता ही तब है जब मन की इन परतों में यात्रा करते हुए हम परम-मन यानि अपने ईश्वरत्व का अनुभव कर लें। इसी यात्रा को करने के लिए प्रत्यक्ष श्री गुरु की नितांत आवश्यकता व अनिवार्यता है। अदृश्य के अनंत रहस्य श्री गुरु की प्रत्यक्षता और समागम में मनुष्य के मन में उजागर होने लगते हैं। श्री गुरु में जो अस्तित्व प्रकट हुआ है वही अस्तित्व अभी शिष्य समुदाय में सुषुप्त रूप से पड़ा ही है। इसी सुषुप्त चेतना को श्री गुरु का दिव्य समागम जागृत करता है और मनुष्य अनंत की महायात्रा पर, देह में रह कर देहातीत अवस्था के अनुभव पर सहज ही निकल पड़ता है…

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