LifeSpiritualitySri Guru's Notes

मुमुक्षुता की भूमिका — भाग 2/3

श्रीमद् राजचंद्रजी ने अपने काव्य ‘इच्छे छे जे जोगिजन’ में मुमुक्षुता की तीन भूमिकाएँ लिखी है। उन्हीं तीन भूमिकाओं के लक्षणों को समझाते हुए श्री बेन प्रभु इन ३ लेखों की शृंखला से हमें कुछ महत्वपूर्ण शब्द समझाते हैं । यह लेख दूसरी भूमिका पर आधारित है।

{ लेख का पहला भाग पढ़िए }

रोकें शब्दादिक विषय, संयम साधन राग।

जगत इष्ट नहीं आत्म से, मध्य पात्र महाभाग्य ।।

रोकें शब्दादिक विषय — मनुष्य के पास पाँच इंद्रियों की महत्वपूर्ण संपत्ति है। प्रत्येक इन्द्रिय के अपने अपने विषय हैं जैसे कान का विषय है सुनना, आँख का विषय है देखना, जीभ का विषय है चखना इत्यादि। इन इंद्रियों और इसके विषयों का उपस्थित होना हमारे मोक्ष में न ही साधक है और न ही बाधक है। परंतु इनके अनुचित उपयोग के कारण ही हमें यह इंद्रियाँ मोक्ष मार्ग पर बाधक लगती है। मुमुक्षु वह होता है जो अपनी इंद्रियों के विषयों का मालिक होता है। मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होने के लिए कान को क्या सुनना, आँख से क्या देखना और जीभ से क्या चखना इसका निर्णय जब मनुष्य के विवेक से उठता है तब मुमुक्षुता की दूसरी भूमिका आरम्भ होती है। मनुष्य का मन इन इन्द्रिय-विषयों के इतने आधीन है कि जब भी यह विषय संसार की ओर भागते हैं तब उन पर अंकुश लगाना नामुमकिन सा लगता है। परंतु प्रथम भूमिका का आधार ठोस होने के कारण अब इन्द्रिय विषयों की ग़ुलामी और परतंत्रता टूटती है और इन्द्रिय विषयों का ग्रहण मनुष्य के विवेक के आधार पर होता है, आदतों की ग़ुलामी के कारण नहीं।

“कान को क्या सुनना, आँख से क्या देखना और जीभ से क्या चखना इसका निर्णय जब मनुष्य के विवेक से उठता है तब मुमुक्षुता की दूसरी भूमिका आरम्भ होती है।”

संयम साधन राग — मनुष्य की अधिकांश शक्ति इन्द्रिय-विषयों की ग़ुलामी को भोगने या उनसे संघर्ष करने में ही नष्ट हो जाती है। जीवन में इंद्रियों के माध्यम से आवश्यक कर्म करने अनिवार्य है परंतु विषयों का दासत्व होने से अनावश्यक, व्यर्थ कर्मों को करने में ही शक्ति का ह्रास होता है। इससे विपरीत जब शब्दादिक विषयों की मालिकी प्रकटती है तो मुमुक्षु अपने भीतर शक्ति की मात्रा की अधिकता महसूस करता है। चूँकि भीतर मुमुक्षुता की भूमि तैयार है इसलिए इस शक्ति का स्वाभाविक बहाव संयम को पुष्ट करने वाले साधनों के प्रति ही होता है। दूसरी भूमिका में प्रविष्ट हुआ मुमुक्षु अनुभव करता है कि संयम मार्ग पर आश्रय रूप साधन जैसे की सत्संग, समागम, स्वाध्याय, भक्ति, ध्यान, तप, त्याग आदि के प्रति मन में सहज ही आकर्षण है। इन साधनों में रस-रुचि-एकाग्रता-लीनता आदि भी क्रमशः बढ़ते जाते हैं — यह मुमुक्षु की दूसरी भूमिका का प्रमाण है।

जगत इष्ट नहीं आत्म से — शब्दादिक विषयों की मालिकी और संयम के साधनों के प्रति राग प्रकटने से यह मुमुक्षु, जगत में रह कर सभी कर्तव्य कर्म करता है परंतु स्वयं के आत्मा होने की दृढ़ प्रतीति भीतर होती है। यह आत्मा होने की दृढ़ प्रतीति क्या? मुमुक्षु किसी भी प्रसंग में इतना सजग होता है कि संसार के कार्य करते हुए भी निज शुद्धता पर राग-द्वेष-अज्ञान के आवरण नहीं आने देता। यदि यह भाव उठते भी हैं तो विवेक बल से उन्हें तत्काल ही हटाता है। यह मुमुक्षु क्षण-क्षण में, कार्य-कार्य में, प्रसंग-प्रसंग में आत्मशुद्धि के प्रति जागृत होता है जिसके परिणाम स्वरूप आत्म-रस की पूर्व प्रतीति आनंद व शांति की संवेदना के रूप में उसमें उठने लगती है। यह अपूर्व संवेदन मुमुक्षु की मध्यम पात्रता को सुदृढ़ करते हैं और मनुष्य का मोक्ष-मार्ग के प्रति का बाह्य-अंतर उल्लास दिन प्रतिदिन बढ़ता जाता है।

इस प्रकार मध्यम भूमिका में मनुष्य की अपने इन्द्रिय विषयों और मन के ऊपर मालिकी आती है, संयम के साधनों के प्रति आकर्षण होता है और अंततः जगत में रहते हुए ही निज शुद्धता के प्रति सावधान होता है। इस भूमिका के अंदर सात्विक आनंद जब भीतर से उठता है तो राग द्वेष आदि परिणामों से मुड़ना सुलभ हो जाता है।

श्रीमद् राजचंद्रजी के अन्य वचनामृत पर श्री बेन प्रभु के सत्संग –

You may also like

Leave a reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

More in:Life