LifeReligion x SpiritualitySpiritualitySri Guru's Notes

मुमुक्षुता की भूमिका — भाग 1/3

श्रीमद् राजचंद्रजी ने अपने काव्य ‘इच्छे छे जे जोगिजन’ में मुमुक्षुता की तीन भूमिकाएँ लिखी है। उन्हीं तीन भूमिकाओं के लक्षणों को समझाते हुए श्री बेन प्रभु इन ३ लेखों की शृंखला से हमें कुछ महत्वपूर्ण शब्द समझाते हैं । यह लेख प्रथम भूमिका पर आधारित है।

अध्यात्म संस्कृति का अंतिम लक्ष्य है ‘मोक्ष’ — यानि जीव की परम शुद्ध-बुद्ध-स्वतंत्र स्थिति। इस लक्ष्य तक हमें जो पहुँचाए उसे कहते हैं ‘मोक्ष मार्ग’ और जिसके जीवन में दृढ़ता से यही लक्ष्य बना हो उसे कहते हैं ‘मुमुक्षु’। आज धर्म जगत में आता-जाता हर व्यक्ति स्वयं को मुमुक्षु कहता जा रहा है परंतु ना भीतर शुद्धता है, ना ही बुद्धत्व का रस और ना ही स्वतंत्रता की खोज है उसकी। ऐसी भ्रमित स्थिति में केवल मात्र कोई सद्गुरू ही जीव के इस भ्रम को तोड़ने में सक्षम होते हैं जो उसे मोक्ष, मोक्षमार्ग और मुमुक्षु का वास्तविक स्वरूप समझाते हैं।

मोक्ष मार्ग की सम्यक् स्थापना

जहाँ एक ओर सभी धर्म परम्पराएँ मात्र क्रियाकाण्ड को ही धर्म मान रही है या फिर ज्ञान विलास को ही आत्मज्ञान मान रही है वहीं श्री सद्गुरू जैसी विरल चेतनाएँ क्रिया काण्ड के आडंबर और ज्ञान विलास के खोखलेपन से जीव को अवगत करा के मोक्ष मार्ग की पुनः सम्यक् स्थापना कर रही है। आज से 150 वर्षों पूर्व इस धरातल पर एक ऐसी ही विरल दिव्य चेतना का अवतरण हुआ जिन्हें हम ‘श्रीमद् राजचंद्र’ जी के नाम से जानते हैं। श्रीमद् जी के कहे-लिखे वचनों में जैन, वेदांत आदि संप्रदायों के ग्रंथों का विशेष उघाड़ था और उनके अंतर में आत्मानुभव से ओतप्रोत धारा सहज बहती थी। जैसे आत्म-समाधि में लीन उनका सारा जीवन था वैसे ही मात्र परमार्थ व अध्यात्म दृष्टि को उघाड़ने के लिए उनका सारा साहित्य आज हमारे पास मौजूद है।

पात्रता-निर्माण की अनिवार्यता

Shrimad Rajchandraji (1867–1901)

श्रीमद् जी कहते थे — “आत्मस्वरूप की अनुभूति के बिना जगत के जीवों के दुःख का अंत आने वाला नहीं है; यह आत्मस्वरूप जिन्होंने जाना है ऐसे सत्पुरुष के सत्संग के बिना, उनकी आज्ञा के आराधन के बिना प्राप्त होने वाला नहीं है।” लेकिन वास्तविकता यही है कि यह सत्संग और सद्गुरू का योग भी मनुष्य के भीतर मोक्ष की अभिलाषा तभी उत्पन्न करते हैं जब इस योग में पात्रता-निर्माण का कार्य हुआ हो। सद्गुरू की आज्ञा और सत्संग का श्रवण — यह दोनों ही पात्रता निर्माण के लिए अचूक उपाय है। यह पात्रता शास्त्रों में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट — ऐसे तीन प्रकार से उल्लेखित है।

इस धारावाहिक लेख के अंतर्गत हम इन तीन प्रकार की पात्रता के लक्षणों को समझेंगें। इस लेख में जघन्य पात्रता यानि प्रथम भूमिका के लक्षणों को समझ कर यह निरीक्षण करना होगा कि सद्गुरू आज्ञा और सत्संग श्रवण के योग में यह जीव मोक्ष-मार्ग पर कितना अविचल रूप से चल रहा है।

प्रथम भूमिका (जघन्य पात्रता)

श्रीमद् राजचंद्र जी ने अपने ‘अंतिम संदेश’ नामक लघु काव्य में मुमुक्षु की इन तीन भूमिकाओं का स्पष्ट उल्लेख किया है। इस काव्य में श्रीमद् जी लिखते हैं –

मंद विषय और सरलता, सह आज्ञा सुविचार।
करुणा कोमलतादि गुण, प्रथम भूमिका धार ।।

मंद विषय — यदि इस जीव को सद्गुरू और सत्संग का योग हुआ है तो निश्चित ही उसकी पंच-इंद्रियों के विषयों के प्रति की लोलुपता व आकर्षण कम होने चाहिए। यदि ऐसा नहीं हो रहा तो यह मात्र व्यक्ति का आकर्षण है, सद्गुरू का योग नहीं है।

सरलता — पाँच इंद्रियों के विषयों का रस कम होने के साथ साथ ही इधर-उधर भटकता मन कुछ शांत होने लगता है। पूर्व-कर्मों के उदय वश जब विषयों का आकर्षण तीव्र होने लगे या क्रोध आदि कषाय हावि हो तो भी यह जीव जानता है, मानता है और स्वीकार करता है कि दोष उसका स्वयं का ही है। ऐसी स्व-दोष निरीक्षण व स्वीकृति की वृत्ति को ‘सरलता’ कहते हैं जो मुमुक्षु की प्रथम भूमिका है।

सह आज्ञा सुविचार — इन्द्रिय विषयों की ओर मंद आकर्षण और सरलता के गुणों का आविर्भाव होने से श्री गुरु की आज्ञा का सुविचार (सही विचार) संभव हो पाता है। इन गुणों के बिना तो मनुष्य श्री गुरु के वचन का भी वही आशय निकालता है जो उसके संसार रस को दृढ़ करे। परंतु मंद विषय और सरलता की आंतरिक भूमि तैयार होते ही श्री सद्गुरू के वचन का आशय स्वयं के आत्महित के पक्ष में समझ में आने लगता है। यहीं से शिष्यत्व का जन्म होता है जो मोक्षमार्ग पर स्वयं की दृढ़ता के प्रति सतत जागृत होता है।

करुणा-कोमलतादि गुण — जीव का मोक्षमार्ग पर चलना यानि स्वयं के भीतर रहे अनंत आत्मिक गुणों का विकास होना। प्रथम भूमिका (जघन्य पात्रता) में आए शिष्य के भीतर श्री गुरु के वचन का यथार्थ आशय ग्रहण होने से मोक्षमार्ग पर उपयोगी गुण उजागर होने लगते हैं। सद्गुरू के प्रति प्रेम-श्रद्धा-अर्पणता के भाव शिष्य के हृदय को कोमल बनाते हैं जिसमें आत्म संवेदन का बीज-रोपण होता है। अनादि काल के इस परिभ्रमण में स्वयं के स्वरूप को भूल जाने के कारण ही अनंत दुखों की वेदना चल रही है, यह समझ में आते ही शिष्य सर्वप्रथम निज-आत्म के प्रति करुणा से भरता है। यह स्वयं के प्रति करुणा से भीगा ह्रदय ही शिष्य में रही अज्ञानता की कठोर परतों को तोड़ता है। तब इसी भूमिका में आत्म-अनुभव की प्यास एवं संसार के प्रति का वैराग्य प्रकट होने लगते हैं।

इस प्रकार प्रथम भूमिका में आए मुमुक्षु के लक्षणों को श्रीमद् राजचंद्र जी ने मात्र दो पंक्तियों में स्पष्ट किया है। जिसे वास्तव में ही मोक्ष की लगन है, स्वयं के परमात्म स्वरूप को जानने की अभीप्सा है उनके लिए इन पंक्तियों में सटीक आँकन दिए हैं। गुण विकास की इस क्रमबद्धता को उजागर किए बिना कोई भी, कभी भी मोक्षमार्ग पर आरूढ़ नहीं हो सकता।

आगामी दो आलेखों में श्रीमद् राजचंद्र जी के इसी काव्य के आधार पर मोक्षमार्ग पर मुमुक्षु की भूमिका (मध्यम व उत्कृष्ट) का विस्तार करेंगे। स्मरण रहे, श्री गुरु को मात्र सुनना, मुमुक्षु होना नहीं होता परंतु शब्दों के आशय को समझ कर जो रूपांतरण में रस रखता है वही इस जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट भूमिकाओं से होता हुआ मोक्ष रूपी निज शुद्धता का अनुभव करता है।

श्रीमद् राजचंद्रजी के अन्य वचनामृत पर श्री बेन प्रभु के सत्संग –

You may also like

Leave a reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

More in:Life