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ईश्वर क्या और भगवान कौन ?

इस लेख में श्री बेन प्रभु अध्यात्म के सबसे गहरे दो शब्द ‘ईश्वर’ और ‘भगवान’ के बारे में बता रहे हैं। वे इन दोनो शब्दों के बीच की भिन्नता के साथ साथ एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण अवधारणा को लिख कर एक वैचारिक क्रांति की शुरुआत कर रहे हैं।

भारतीय धर्म संस्कृति ईश्वर, भगवान, परमात्मा, परब्रह्म, परमेश्वर, प्रभु आदि विविध शब्दों से आबाद है। यह इस संस्कृति की गंभीर दार्शनिक दृष्टि है की अदृश्य शक्ति व अनव्यक्त अनुभवों को शब्दों की सीमाओं में बाँध लिया गया है। अनंत की अभिव्यक्ति के लिए गिने-चुने हुए यह शब्द अत्यंत छोटे पड़ते हैं परन्तु यह भारतीय परंपरा की अतुल गरिमा ही है जो इन थोड़े से शब्दों में उस विराट-अनंत-असीम निराकार स्वरुप को साकार करने की सक्षमता रखते हैं।

द्वैत का नियम

द्वैत जगत का यह नियम है कि यहाँ किसी भी वस्तु-व्यक्ति-स्थिति के प्रकट होते ही उसका दुई के साथ रिश्ता जुड़ जाता है। यानि, उसके साथ अच्छा-बुरा, सही-गलत, पूरा-अधूरा की विविध कल्पनाएँ हर काल व हर क्षेत्र में उभर उभर कर आती है। जहाँ एक ओर ईश्वर, भगवान, परब्रह्म, परमेश्वर आदि शब्द अनंत व्यापकता को समेटे हुए है वहीँ धर्म सम्प्रदायों की संकीर्ण दृष्टि ने इन शब्दों के साथ उचित न्याय नहीं किया। अनुभव का अधूरापन शब्दों के पूरेपन को कभी भी नहीं दर्शा सकता। इसलिए जब यह शब्द ऋषि-परंपरा से होते हुए अनुभव-हीन पंडितों के हाथ में पड़े तो इनसे अध्यात्म की गहनता सुगम होने के बदले अत्यंत उलझती गयी।

दिल-दिमाग का द्वंद्व

आज धर्म क्षेत्र का हर व्यक्ति उलझा हुआ है। ईश्वर की पूजा करना, समर्पण भाव होना, रीति-रिवाज़ों का पालन करना — यह सब हमारे DNA में है इसलिए हम यह करना चाहते ही हैं परन्तु इनके वास्तविक-न्यायपूर्ण अर्थ के अभाव में हम ईश्वर पूजा, समर्पण भाव और धार्मिक रस्म-रिवाज़ों को अंधविश्वास का नाम दे कर उनसे दूर होते जा रहे हैं। मनुष्य की तर्क संगत बुद्धि आज इन मान्यताओं की प्रमाणिकता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती जा रही है ! दिल चाहता है इन रस्मों को मानना लेकिन दिमाग कहता है की यह तर्क-सम्मत नहीं है।

आज जहाँ संप्रदाय वाद-विवाद में उलझ रहे हैं और सत्य की पहचान धुँधली होती जा रही है वहीं मेरा यह प्रयास है कि समय और विवाद के गर्त में खोये यह शब्द पुनः अपनी वास्तविक पहचान बनाये। जिन गहन गंभीर शब्दों के साथ अब तक हम जफ़ा कर रहे थे अब उन्हीं से वफ़ा करके अपने भीतर उस दिव्य के प्रति अनन्य प्रेम को विकसित करें। अनुभव-हीनता के कारण जो दिव्य शब्द अपनी चरम-अभिव्यक्ति को खो चुके हैं, अब वह समय लाना होगा कि उनकी दिव्यता उजागर हो, उनसे जुड़े प्रश्न गिरे, उनके साथ हुए अन्याय का अंत हो और एक नए अध्यात्म-युग का आरम्भ हो।

अनुभव-हीनता के कारण जो दिव्य शब्द अपनी चरम-अभिव्यक्ति को खो चुके हैं, अब वह समय लाना होगा कि उनकी दिव्यता उजागर हो, उनसे जुड़े प्रश्न गिरे, उनके साथ हुए अन्याय का अंत हो और एक नए अध्यात्म-युग का आरम्भ हो।

ईश्वर और भगवान

ऐसे ही दो अनमोल शब्द है — ईश्वर और भगवान। शब्द-कोष में देखने जायेंगे तो एक ही अर्थ मिलेगा और व्याकरण के जगत में तो दोनों पर्यायवाची कहलाते हैं। परन्तु अध्यात्म इनके मूलभूत भेद को स्पष्ट करता है जो हमारी किसी भी धार्मिक मान्यता के आधार स्तम्भ को हिलाये बिना हमारी संकुचित दृष्टि का विकास और विस्तार करता है। इन शब्दों के रहस्य को समझे बिना आज धर्म-जगत में एक संप्रदाय दुसरे संप्रदाय के विरोध में खड़ा दिखता है। परन्तु जब ईश्वर स्वयं ‘एक’ ही है तो ईश्वर को समझने में इतनी विविधता, विचित्रता और विरोधी भाव कहाँ से उठ रहे हैं ? कारण है अनुभव-हीनता, कारण है अहंकार की दृढ़ता। ज़रा इन पर्दों को हटाकर देखें तो इन दिव्य शब्दों में समाया वह व्यापक-अनंत-शाश्वत स्वरुप स्वयं ही उघड़ कर बाहर आएगा।

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ईश्वर — यह एक शक्ति है।
भगवान — यह एक व्यक्ति विशेष है जिन्होंने ईश्वर को जान लिया है।

ईश्वर — सम्पूर्ण स्वरुप, आद्य शक्ति या शिवा की अनंत व्यापक स्थिति को ही ईश्वर कहते है।
भगवान — उस संपूर्ण स्वरुप की अनंत व्यापकता का जिन्होंने अनुभव किया, उसमें ही खो गए, वह सभी भव्य आत्माएँ भगवान है।

ईश्वर — यह वह शक्ति है जो अजन्मा-अमर-अविनाशी है, यानि काल से पूर्व भी यह शक्ति विद्यमान थी और काल के पश्चात् भी विद्यमान रहती है।
भगवान — जन्म मरण के परिभ्रमण में, उसकी व्यार्थता जानकार जो अजर अमर होने की यात्रा पर निकल पड़े और अविनाशी शक्ति का अनुभव किया वह भगवान है।

ईश्वर — क्षेत्र की अपेक्षा से ईश्वर असीम है, अनंत है।
भगवान — क्षेत्र की अपेक्षा से भगवान एक सीमित शरीर व आयुष्य में होते है। तभी हम उनकी जन्म-जयंती, निर्वाण-जयंती, आदि मनाते हैं।

ईश्वर — रूप आदि (वर्ण, गंध व स्पर्श) की अपेक्षा से ईश्वर निराकार है।
भगवान — रूप आदि की अपेक्षा से भगवान साकार है।

ईश्वर — आद्य शक्ति व शिव ईश्वरीय शक्ति की अभिव्यक्ति को उजागर करने के प्रतीक है।
भगवान — हिंदू परम्परा से श्री राम, कृष्ण, आदि भगवान कहलाते है। जिन परम्परा से अष्ट कर्मों को क्षय करके अनंत में खोने वाले सभी तीर्थंकर, केवली, आदि भगवान कहलाते हैं। बौद्ध परम्परा से गौतम बुद्ध आदि भगवान कहलाते हैं। ईसाई परम्परा से जीसस आदि भगवान कहलाते हैं तो सिख परम्परा से नानक देव आदि भगवान कहलाते हैं।

ईश्वर — ईश्वर की उपस्थिति का कारण है कि वह अपनी लीला का सर्जन-संचालन-विसर्जन करते है।
भगवान — भगवान की उपस्थिति का कारण है कि अपने उत्पाद-व्यय-ध्रुव स्वभाव को जानकार परिभ्रमण का अंत लाते हैं।

ईश्वर — सकल विश्व का कण-कण इस शक्ति से निकला है।
भगवान — भगवान एक विशेष व्यक्ति हैं जो अपने भीतर रहे ईश्वर का अनुभव करने में सफल हुए हैं।

ईश्वर — यह शक्ति इस ब्रह्मांड में हर जन, हर कण की पालक है। चाहे मनुष्य को पता हो या न हो, जिस शक्ति से सम्पूर्ण ब्रह्मांड के विस्तार से लेकर अणु की सूक्ष्म स्थिति व्यवस्थित रूप से चल रही है — वह इश्वर ही है।
भगवान — भगवान हमारे पालक नहीं हैं, वह हमारे मार्ग-दर्शक हैं। जो हमें भी इस मनुष्य देह में ईश्वर की अनुभूति का मार्ग बताते हैं।

ईश्वर — चूँकि ईश्वर मात-पिता की तरह ही हमारे पालक हैं तो हमारी उत्तरजीविता, समृद्धि, कल्याण आदि के लिए इन्हें पूजना सर्व मान्य है।
भगवान — भगवान के साथ हमारी जीविका, समृद्धि, स्वास्थ्य, आदि को सम्भालने का सम्बंध नहीं होता। वह हमारे शाश्वत कल्याण के निमित्त होने के कारण पूजनीय हैं।

ईश्वर — हर वस्तु-व्यक्ति में जो उसका पवित्र स्वभाव है वह ईश्वर है।
भगवान — स्वयं के पवित्र स्वभाव को जानने वाले भगवान हैं।

ईश्वर — नवरात्रि, शिवरात्रि आदि ईश्वर की उपस्थिति का उत्सव मनाने के विशेष त्यौहार है।
भगवान — जन्माष्टमी, दिवाली, दशहरा, महावीर जयंती, बुद्ध पूर्णिमा, पंच कल्याणक आदि भगवान द्वारा बताए मार्ग का उत्सव मनाने के विशेष त्यौहार हैं।

ईश्वर — दुनिया में उपस्थित आस्तिक दर्शन ईश्वर के होने का दावा करते हैं और नास्तिक दर्शन इनकी सत्ता का स्वीकार नहीं करते।
भगवान — यह काल-क्षेत्र-भाव को देखकर किसी एक दर्शन की मुख्य करके सिद्धांतों की पुनः स्थापना करते हैं जैसे भगवान महावीर, बुद्ध, कृष्ण आदि।

ईश्वर — इस शक्ति का कोई सम्प्रदाय नहीं होता।
भगवान — हर भगवान के साथ व उनके पश्चात् एक नए धर्म युग का आरम्भ होता है और नया सम्प्रदाय जन्म लेता है।

ईश्वर — इन्हें हम GOD कहते हैं।
भगवान — इन्हें हम LORD कहते हैं।

इस प्रकार ईश्वर और भगवान के वास्तविक स्वरूप को समझ कर जब हम आराधना, उपासना या रीति-रिवाज़ में उतरते हैं तो हमारा अंध विश्वास श्रद्धा बन जाता है, और जड़ क्रियाएँ पवित्र यज्ञ-कर्म बन जाती हैं। जिन्हें आज का सुशिक्षित वर्ग अंध विश्वास, रूढ़ि कहता है वह वास्तव में उनकी बुद्धि के तर्क संगत दायरे से बाहर है, इसलिए कह रहा है। परंतु इन भेदों को गहराई से समझने, विचार करने के पश्चात् शताब्दियों से चले आ रहे हमारे विरोध शांत हो जाएँगे और उलझनें सुलझ जाएँगी। हमारी मान्यताओं में जब सत्य की दृढ़ता होगी तब जीवन के प्रत्येक कृत्य में सही-गलत, शुभ-अशुभ, नित्य-अनित्य का अद्भुत विवेक उजागर होगा।

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